शुक्रवार, सितंबर 24, 2010

संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ?



एक बार की बात है । नारद के मन में विचार उठा कि संत के दर्शन का कया फ़ल होता है ? इस सवाल का जवाव कौन देता ? इसलिये नारद जी क्षीरसागर में विष्णु के पास पहुंचे । कुछ देर की औपचारिकता के बाद नारद ने कहा । प्रभु । कृपया ये बतायें । कि संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ? विष्णु ने कुछ देर सोचा । और फ़िर बोले । नारद जी । आपके प्रश्न का जबाव । वो तालाब में रहने वाला मेढक बतायेगा । नारद को बहुत आश्चर्य हुआ । लेकिन फ़िर भी मेढक के पास पहुंचे । उन्होंने मेढक से पूछा । संत के दर्शन का फ़ल क्या होता है ?
मेढक ने जैसे मानों उनकी बात सुनी ही न हो । उसने उथले पानी में पैरों को चलाया और शान्त पड गया । नारद जी ने कहा । अजब बात हुयी । मैं प्रश्न पूछने आया । और ये बेचारा चल बसा । नारद फ़िर विष्णु के पास पहुंचे । पूरा हाल बताया । और फ़िर प्रश्न दोहराया । विष्णु विचार करते हुये बोले । नारद । इस प्रश्न के उत्तर के लिये दस महीने रुकना होगा । नारद फ़िर दस महीने बाद विष्णु के पास पहुंचे । और अपना प्रश्न दोहराया । कि संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ? विष्णु ने कुछ देर सोचा । और फ़िर बोले । नारद जी । आपके प्रश्न का जबाव । वो सरोवर में रहने वाला राजहंस बतायेगा । नारद राजहंस के पास पहुंचे । और अपना प्रश्न किया । हे राजहंस । संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ? राजहंस ने सुना । पर कुछ न बोला । वह मानों कहीं दूर जा रहा हो । अनमना हो । कुछ देर बाद उसके पंख फ़डफ़डाये । और वह यह यात्रा पूरी करके आगे की यात्रा के लिये चला गया । ये बेचारा भी चल बसा । अजीब बात है । अजीब प्रश्न है ? जिससे भी पूछता हूं । वह ही यहां से चल देता है । नारद फ़िर विष्णु के पास पहुंचे । पूरा हाल बताया । और फ़िर प्रश्न दोहराया । विष्णु विचार करते हुये बोले । नारद इस प्रश्न के उत्तर के लिये । दस महीने और रुकना होगा । नारद फ़िर दस महीने बाद विष्णु के पास पहुंचे । और अपना प्रश्न दोहराया । कि संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ? विष्णु ने कुछ देर सोचा । और फ़िर बोले । नारद जी । आपके प्रश्न का जबाव । उस राजा के यहां पैदा हुआ । वह नवजात राजकुमार देगा । नारद जी को भारी हैरत हुयी । विष्णु भगवान ये कैसी बात कर रहे हैं ? नवजात राजकुमार । भला कैसे उत्तर देगा ? विष्णु ने कहा । आप जाओ तो सही । वही आपके उत्तर देगा । नारद राजमहल पहुंचे । राजमहल के लोगों को तमाम समझा बुझाकर राजकुमार से कुछ देर बातचीत के लिये राजी कर लिया । मन में बडी उत्कंठा थी कि शायद आज उत्तर मिल ही जाय । नवजात बालक राजकुमार के पास पहुंचे । और अपना प्रश्न दोहराया । कि संत के दर्शन का क्या फ़ल होता है ? तब वह नवजात बालक बोला । सुनिये नारद जी । आज से बीस महीने पहले । जब आपने मुझसे ये प्रश्न किया । तब में मेंढक की योनि में था । आपके । एक संत के दर्शन मात्र से । न सिर्फ़ उस योनि से मेरा छुटकारा हुआ । बल्कि राजहंस जैसी योनि में मेरा जन्म हुआ । प्रभु की कृपा से । आपने फ़िर मुझे वहां दर्शन दिये । और मेरा तत्क्षण ही । उस योनि से भी छुटकारा हो गया । न सिर्फ़ छुटकारा हुआ । बल्कि मैं एक कुलीन राजघराने में दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्मा । प्रभु की कृपा से आपने मुझे फ़िर से दर्शन दिये । लेकिन इस दर्शन का फ़ल भिन्न है । मैं राजकुमार होते हुये भी भोगविलास से दूर प्रभु भक्ति करता हुआ । उस लक्ष्य को प्राप्त करूंगा । जो मानव योनि का हेत होती है । इस तरह मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूंगा । तो हे महात्मन । सच्चे संत के दर्शन । जो दुर्लभ होते हैं । उसका यही फ़ल होता है । कि मुक्ति जैसा फ़ल भी सरलता से प्राप्त हो जाता है ।

वे तीरथराम से स्वामी रामतीर्थ हो गये



स्वामी रामतीर्थ का जन्म पंजाब के मुरलीवाला ग्राम के निवासी पण्डित हीरानंद के परिवार में सन 1873 ई. में दीवाली के दिन हुआ । इनके बचपन का नाम तीरथराम था । इनके जन्म के कुछ दिन बाद ही माता का देहान्त हो गया । तब इनका पालन पोषण इनकी बुआ ने किया । ये बचपन से ही बेहद कमजोर थे । पांच वर्ष की आयु में इनकी पडाई शुरू हो गयी । और इन्होंने प्राथमिक स्तर पर फारसी की शिक्षा प्राप्त की । 10 वर्ष की आयु तक प्राथमिक शिक्षा पूरी करके इनका इसी आयु में विवाह हो गया । और इसके बाद आगे की पढाई के लिए तीरथराम गुजरांवाला गये । वहां इनके पिता के मित्र धन्नाराम रहते थे । उन्हीं के यहां रहकर तीरथराम की पढाई हुयी । 14 वर्ष की आयु में तीरथराम ने मैट्रिक परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया । तब उन्हें राज्य की ओर से छात्रवृत्ति दी गयी । फ़िर आगे की पढाई के लिए तीरथराम लाहौर गये । इनके पिता की आर्थिक स्थिति बेहद खराब थी । वे तीरथराम को आगे पढाने में असमर्थ थे । तब तीरथराम ने छात्रवृत्ति के सहारे ही आगे पढने का निर्णय लिया । उनकी पडाई में अनेक विघ्न आये । पर तीरथराम अपने दृण संकल्प से सारी बाधाओं को पार कर गये । उन्होंने इण्टरमीडिएट परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । जीवन की भीषण परिस्थितियां तीरथराम के धैर्य और आत्मविश्वास की परीक्षा पर परीक्षा लिए जा रही थी । उनके पिताजी तीरथराम की पत्नी को उनके पास छोड गये । पहले तो अपने ही खाने की समस्या थी । अब पत्नी की और हो गयी । कभी कभी तो दोनों लोगों को भूखा तक रहना पडता था । तीरथराम नंगे पांव विद्यालय जाते थे । B A की परीक्षा में उन्हें संस्कृत और फारसी विषयों में तो बहुत अच्छे नम्बर मिले । पर english में वह फ़ेल हो गये । इसलिये पूरी परीक्षा में ही फ़ेल कर दिया गया । अब क्या होता ? कहीं से कोई सहारा भी नहीं था । तब उन्हें झंडूमल नाम के मिठाई वाले ने सहारा दिया । उसने तीरथराम के परिवार के लिये भोजन आवास आदि की व्यवस्था की । इस सहारे से तीरथराम का हौसला बडा । और अगले वर्ष उन्होने अपनी मेहनत से पूरे विश्वविद्यालय में B A परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया । इस समय तीरथराम की आयु 19 वर्ष की थी । तीरथराम ने लाहौर विश्वविद्यालय से ही गणित विषय में परास्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की । इसके बाद वे सियालकोट में अमेरिकन मिशन द्वारा संचालित एक विद्यालय में शिक्षण कार्य करने लगे । तब उन्हें 80 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता था । इसी समय उनकी पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया । जिनका नाम मदन गोस्वामी और ब्रह्मानन्द था । लेकिन कुछ समय बाद ही तीरथराम का मन संसार से उचट गया । और उनकी व्याकुलता दिनोंदिन बढती गयी । अंत में 25 वर्ष की आयु में नौकरी घर परिवार छोडकर तीरथराम ऋषिकेश के पास ब्रह्मपुरी में निवास करने लगे । कहा जाता है कि इसी स्थान पर तीरथराम को दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुयी । 28 वर्ष की अवस्था में तीरथराम एक नया बदलाव हुआ । वे तीरथराम से स्वामी रामतीर्थ हो गये । और संन्यास भाव में आ गये । टेहरी के महाराज ने आपके ज्ञान से प्रभावित होकर आपको देश विदेश की यात्रा करने हेतु कहा । स्वामी रामतीर्थ जापान एवं अमेरिका की यात्रा पर गये । इन देशों में के लोगों को उन्होने भारत के महान प्राचीन ज्ञान से परिचित कराया । अमेरिका में स्वामी रामतीर्थ लगभग दो वर्षो तक रहे । विदेश यात्रा से लौटकर वे महाराज टेहरी के विशेष आग्रह पर टेहरी राज्य में गंगाजी के किनारे एक कुटी में निवास करने लगे । एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में स्वामी रामतीर्थ गंगास्नान हेतु गये । और स्नान करते हुये आगे बढते ही गये । और एक भंवर में फंस गये । वहीं उनकी जलसमाधि बन गयी । यह घटना 1906 की है । इस समय उनकी आयु मात्र 33 वर्ष की थी । वे हिंदी संस्कृत और फारसी के अच्छे कवि थे ।
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