शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

क्या प्रेम आमोद प्रमोद या मजा है ?

प्रेम क्या है ?  हम यह चर्चा नहीं कर रहे कि - प्रेम को क्या होना चाहिये ? हम यह देख रहे हैं कि - वो क्या है । जिसे हम प्रेम कहते हैं ? आप कहते हैं - मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूँ । पर मैं नहीं जानता कि आपका प्रेम क्या है ? मुझे संदेह है कि आप किसी भी चीज से प्यार प्रेम करते हों । क्या आप प्रेम शब्द का अर्थ भी जानते हैं ? क्या प्रेम आमोद प्रमोद या मजा है ? क्या प्रेम ईर्ष्‍या है ? क्या वह व्यक्ति प्रेम कर सकता है । जो महत्वाकांक्षी हो ? हो सकता है । वो अपनी पत्नी के साथ सोता हो । कुछ बच्चे भी पैदा कर लिये हों । एक व्यक्ति जो राजनीति में । या व्यापार जगत में । एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने के लिए संघर्ष रत हो । अथवा धार्मिक जगत में । जहां कि - वो एक संत बनना चाहता हो । जहां कि उसे इच्छा रहित होना है । यह सब महत्वाकांक्षाओं । आक्रामकता । इच्छाओं के ही अवयव हैं ।
क्या एक व्यक्ति जो कि प्रतियोगिता में । दौड़ में शामिल हो । वो प्रेम में हो सकता है ? और आप सब प्रतियोगिता में हैं । क्या आप नहीं ? अच्छे जाब । बेहतर पद प्रतिष्ठा । अच्छा घर । अधिक महान विचार । अपनी अधिक सुस्पष्ट छवि बनाने में लगे हैं । आप सब जानते हैं कि - आप इन सबसे गुजर ही रहे हैं । क्या यह सब प्रेम है ? क्या आप तब प्रेम कर सकते हैं । जब आप यह सब अत्याचार सम्पन्न करते गुजर रहे हों । जब आप अपनी ही पत्नि या पति या बच्चों पर प्रभुत्व जमा रहे हों ? जब आप ताकत या शक्ति की खोज में लगे हों ? तब क्या प्रेम की कोई संभावना बचती है ? तो जो जो प्रेम नहीं है । उस सबको नकारते अस्वीकार करते हुए हम जहां पहुंचते हैं । वो प्रेम होता है । आप समझे । श्रीमान ? आपको उस सबको अस्वीकार या नकारना होगा । जो प्रेम नहीं है । जो कि

महत्वाकांक्षा ना हो । प्रतियोगिता ना हो । क्रोध आक्रामकता ना हो । हिंसा ना हो । भले ही वो बोलचाल में हो । या आपके कृत्यों में या विचारों में । जब आप उस सबको अस्वीकार नकार देंगे । जो प्रेम नहीं है । तब आप जानेंगे कि - प्रेम क्या है ?
क्या क्षमा प्रेम है ? क्षमा में क्या परिलक्षित होता है ? आपने मेरा अपमान किया । और मैं गुस्सा या नाराज हो गया । मैंने कहा - मैं तुम्हें माफ करता हूँ । पहले तो ” मैं “ ने अपमान को ध्यान में ले लिया । स्वीकार लिया । लेकिन बाद में मेरे ” मैं “ ने उसे अस्वीकार कर दिया । इसका मतलब क्या है ? ” मैं “ ही केन्द्रीय छवि हूं । यानि ” मैं “ वो हूं । जो किसी को क्षमा कर रहा है । जब तक क्षमा कर देने का मनो भाव रहता है । तब तक मैं महत्वपूर्ण रहता है । ना कि वो व्यक्ति जिसने मेरा अपमान किया । तो तब जबकि पहले तो मैं क्रुद्ध हो जाऊं । गुस्से का अम्बार लगाऊं । और फिर उसे इंकार अस्वीकार करूं । जिसे आप क्षमा करना कह रहे हैं । यह प्रेम नहीं है । एक व्यक्ति जो प्रेम में है । जाहिर है । उसमें शत्रु भाव होगा ही नहीं । इसलिए मान अपमान जैसी सभी चीजों के प्रति वो एक साथ तटस्थ उदासीन होगा । सहानुभूति । क्षमाशीलता । कब्जा जताने वाले । या आधिपत्य सूचक सम्बंध । ईर्ष्या । और भय । यह सब चीजें प्रेम नहीं हैं । यह सब मन हैं । क्या ऐसा नहीं है ?
स्पष्टतः प्रेम भावुकता नहीं है । कपोल कल्पनाओं में होना । या भावुक हो जाना । प्रेम नहीं है । क्योंकि ख्यालीपन और भावुकता । ये संवेदनाएं । अनुभूतियाँ । उत्तेजनाएं मात्र हैं । एक धार्मिक व्यक्ति जो ईसामसीह या कृष्ण का नाम लेकर रो रहा हो । या अपने गुरू का । या किसी अन्य का । वो केवल कल्पनाओं में में बह रहा । या भावुक मात्र है । वह उत्तेजनाओं में मग्न है । संवेदना या उत्तेजना । विचार की प्रक्रिया है । और विचार प्रेम नहीं है । विचार संवेदना का परिणाम है । तो वो जो भावुक व्यक्ति है । जो भावनाओं में बह रहा है । प्रेम नहीं जान सकता । क्या हम ख्यालों और भावुकता से भरे नहीं हैं ? ख्यालों भावों में बह जाना । आत्म अहं विस्तार का ही एक रूप है । जो ख्यालों में ही रह रहा हो । वो स्पष्टतः प्रेम में नहीं हो सकता । क्योंकि यदि एक ख्याली व्यक्ति की कल्पनाओं को प्रत्युत्तर नहीं मिलता । तो बहुत ही क्रूर व्यक्ति हो सकता है । यदि उसकी कल्पनाओं को को बह निकलने की जगह

नहीं मिलती । तो वह बहुत ही क्रूर हो सकता है । एक भावुक व्यक्ति को नफरत । युद्ध । और नर संहार के लिए भड़काया उकसाया जा सकता है । एक व्यक्ति जो अपने नाजुक ख्यालों में बह रहा है । अपने धर्म के लिए आंसुओं से भरा हुआ है । निश्चित ही उसके पास प्रेम नहीं होता ।
हम अपनी इच्छाओं के लिए पागल हुए जाते हैं । हम अपने आपको इच्छा द्वारा तुष्ट करना चाहते हैं । लेकिन हम यह नहीं देखते कि - वैयक्तिक सुरक्षितता की इच्छा । व्यक्तिगत उपलब्धि । सफलता । शक्ति । व्यक्तिगत प्रतिष्ठा आदि इन इच्छाओं ने इस संसार में क्या कहर बरपाया हुआ है । हमें यह अहसास तक नहीं है कि - हम ही उस सबके जिम्मेदार हैं । जो हम कर रहे हैं । अगर कोई इच्छा को । उसकी प्रकृति को समझ जाये । तो उस इच्छा का स्थान या मूल्य ही क्या है ?  क्या वहां इच्छा का कोई स्थान है । जहां प्रेम है ? या जहां इच्छा हो । क्या वहां प्रेम के लिए कोई जगह बचती है ?
प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते । वास्तव में आपके पास प्रेम है ही नहीं । आपके पास खुशी या मजा है । उत्तेजना या रोमांच है । यौन संबंध हैं । उसी तरह जैसे कि - एक परिवार है । पत्नि या पति है । जिस तरह देश से जुड़ाव है । लेकिन ये जुड़ाव सा सम्बंध प्रेम नहीं । और प्रेम कुछ ऐसा नहीं कि - बहुत दिव्य हो । या अपवित्र चीज हो । प्रेम में विभाग या भेद है ही नहीं । प्रेम का मतलब है । कुछ ऐसा । जिसका आप ध्यान रखें । खयाल रखें । जैसे किसी वृक्ष की देखभाल । संरक्षण । या पड़ोसी का ध्यान या खयाल रखना । या अपने ही बाल बच्चों की देखभाल । और ख्याल रखना । यह ध्यान रखना कि - आपका बच्चे को उचित शिक्षा मिले । यह नहीं कि स्कूल भेज दिया । और भूल गये । उचित शिक्षा का मतलब ये भी नहीं कि उसे बस तकनीकी शिक्षा दी जाये । यह भी देखना कि बच्चे को

उचित सही शिक्षक मिले । सही भोजन पानी मिले । बच्चा जीवन को समझे । सैक्स को समझे । बच्चे को केवल ऐसी शिक्षा देना । जिसमें वे भूगोल । गणित या तकनीकी चीजें सीख ले । जो उसको काम धंधा दिलाने में काम आयें । ये प्रेम नहीं है ।
प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते । हो सकता है । आप सम्मानीय हो जायें । समाज के अनुरूप हो जायें कि - आप चोरी नहीं करेंगे । पड़ोसी की पत्नी को लाईन नहीं मारेंगे ? आप यह नहीं करेंगे । वो नहीं करेंगे । लेकिन यह नैतिकता नहीं है । यह शील या सद्गुण नहीं है । यह केवल सम्मानीयता के अनुरूप होना है । आदर सम्मान धरती पर सबसे भयानक और घृणित चीज है ? क्योंकि ये बहुत ही कुरूप चीजों पर पर्दा डालता है । जहां पर प्रेम होता है । वहां पर ही नैतिकता होती है । जहां पर प्रेम हो । वहां आप जो भी करें । वो नैतिक होता है । जे. कृष्णमूर्ति

मैं कर्म में विश्वास नहीं करता ?

निश्चित ही जो खुद को सांसारिक राजनीति में खपा कर खो चुके हैं । उनके लिये खुद को भीड़ से अलग करना ही समस्या नहीं । अपितु जीवन में वापस लौटना । प्रेम में उतरना । सहज सरल होना भी मुख्य कार्य है । प्रेम के बिना आप कुछ भी करें । आप कर्म की सम्पूर्णता को नहीं जान सकते । अकेला प्रेम ही आदमी को बचा सकता है । यही सत्य है । श्रीमान ! हम लोग प्रेम में नहीं है । हम वास्तव में उतने सहज सरल नहीं रह गये हैं । जितना हमें होना चाहिए क्यों ? क्योंकि आप दुनियां को सुधारने । संवारने । जिम्मेदारियों । प्रतिष्ठा । सामने वाले से कुछ हटकर करने से । कुछ विशेष होने से सरोकार रखे हुए हैं । दूसरों के नाम पर आप अपने स्वार्थों के गर्त में डूबे हैं । आप अपने ही घोंघेनुमा कवच में समाए हैं । आप समझते हैं कि - आप ही इस सुन्दर संसार का केन्द्र हैं । किसी वृक्ष । किसी फूल । या बहती हुई नदी को देखने के लिए आप कभी भी नहीं ठहरते । और अगर कभी ठहर भी जाते हैं । तो आपकी आंखों में मन में चलते हुए कई विचार । स्मृतियाँ । और जाने क्या क्या उतर आता है । बस आपकी आंखों में सौन्दर्य और प्रेम ही नहीं उमड़ता । पुनश्च - यही सत्य है । लेकिन एक व्यक्ति के करने के लिये क्या है ? बस देखें । समझें । और सहज सरल रहें ?
अनुभव की भूख । या तृष्णा ही । भृम का । माया का । आरंभ है । जैसा कि अब आप जानते हैं । आपकी दृष्टि । आपकी पृष्ठ भूमि । या अतीत का प्रेक्षण । या अनुमान है । या परिस्थितियों द्वारा संभावनाओं को देखना है । और यह ही वह अनुमान या संभावनाएं हैं । जो आपने अनुभव किये हैं । निश्चित ही यह ध्यान नहीं हैं । ध्यान का आरंभ वहां से होता है । जब आप अपनी पृष्ठ भूमि । अपने आपको समझना शुरू करते हैं । बिना अपनी पृष्ठ भूमि को । बिना अपने आपको समझे । आप जिसे ध्यान कहते हैं । वो चाहे कितना ही आनंददायक या दुखदायक हो । वो आत्म सम्मोहन है । आप आत्म नियंत्रण का अभ्यास करते हैं । विचारों में महारत हासिल करते हैं । और

अनुभवों में आगे बढ़ने के लिए ध्यान केन्द्रित करते हैं । यह आत्म स्व केन्द्रित धंधा है । यह ध्यान नहीं है । और यह देखना जानना कि - क्या ध्यान नहीं है । यह ही ध्यान का आरंभ है । झूठ के सच को देख लेने पर ही । मन असत्य से मुक्त होता है । झूठ से मुक्त होने की आकांक्षा से ही झूठ से आजादी नहीं मिल जाती । यह मुक्ति तब आती है । जब हमें किसी सफलता । किसी निर्णय । परिणाम या अंत को उपलब्ध हो जाने से सरोकर नहीं होता । सारी खोजों पर विराम होने पर ही वह संभावना होती है कि - वो अस्तित्व में आये । जो अनाम है ।
केवल एक ही बात मायने रखती है । वो है - भलाई । प्रेम । बुद्धिमानी इत्यादि अमल में आये । कर्म भी हो । क्या भलाई वैयक्तिक और सामूहिक होती है ? क्या प्रेम वैयक्तिक और अवैयक्तिक होता है ? क्या बुद्धिमानी मेरी या तुम्हारी या और किसी की होती है ? यदि यह मेरी या तुम्हारी है । तो यह बुद्धिमानी या प्रेम या भलाई नहीं । यदि भलाई वैयक्तिक और सामूहिक रूप से किसी विशेष प्राथमिकता या निर्णय की तरह हो । तो वह भलाई नहीं रह जायेगा । भलाई वैयक्तिक्ता या सामूहिकता के नाम पर घर के पिछवाड़े में फेंक देने जैसी चीज नहीं है । भलाई । वैयक्तिता । या सामूहिकता । इन दोनों से स्वतंत्र रहकर फूलती फलती है ।
जब आप अवलोकन करते हैं । सड़क पर धूल देखते हैं । यह देखते हैं कि राजनीतिज्ञ कैसा व्यवहार कर रहे हैं । अपनी पत्नि के प्रति । अपने बच्चों के प्रति । अपना ही बर्ताव देखते हैं । इसी तरह की अन्य बातें । तो यही रूपान्तरण होता है । क्या आप समझे ? अपनी दिनचर्या को तरतीब देना । कार्यों में स्वरों को साध लेने सा सामन्यीकरण ही रूपान्तरण है । कुछ ऐसा नहीं । जो बहुत ही असामान्य । या जो दुनिया के बाहर की बात हो । जब कोई - स्पष्ट रूप से कुछ नहीं देख पाता । और वह तर्क युक्ति संगत रूप से इसके प्रति जागरूक हो जाता है । 


और इसे बदलता है । अपनी आदत को तोड़ता है । अपनी अस्पष्टता को विराम देता है । यही रूपान्तरण है । यदि आपको ईर्ष्या या जलन हो रही है । तो इसे देखें । इसे फूलने फलने का मौका दिये बिना इसे तुरन्त बदलें । यह रूपान्तरण होगा । जब आपको लोभ । हिंसा । महत्वाकांक्षा पकड़ लेते हैं । या जब आप खुद को किसी पवित्र आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह बनाना चाहते हैं । तो यह देखें कि आपकी ऐसी सोच । आपका ऐसा होना । कितनी निरर्थक दुनियां की रचना कर रहा है । मुझे नहीं पता । आप इस सबके प्रति जागरूक हैं । या नहीं । प्रतियोगिता विश्व का विनाश कर रही है । दुनियां रोज ब रोज अधिकाधिक प्रतियोगी होती जा रही है । अधिकाधिक आक्रामक होती जा रही है । और अगर आप अपनी यह प्रवृत्ति तुरन्त बदलते हैं । तो यह रूपान्तरण है । यह आप इस समस्या में बहुत गहराई तक जाएं । तो आप स्पष्टतः पाएंगे कि - विचार प्रेम को नकारता है । इसलिए किसी को भी यह प्रश्न उठाना चाहिए । तलाश या पता करना चाहिये कि - क्या विचार का अन्त हो सकता है ? क्या समय का अन्त हो सकता है ? हमें इन प्रश्नों पर दार्शनिक अंदाज में मुद्राएं नहीं बनानी हैं । इस पर चर्चाएं बहसें नहीं करनी । पर यह ईमानदारी से पता करना है । वास्तव में सच्चे रूप में । यही रूपान्तरण है । जब आप रूपान्तरण की गहराई में जाते हैं । तो आप पाएंगे कि - रूपान्तरण का मतलब है - किसी भी तरह के कुछ होने । तुलना के विचार का अभाव । यह है । अस्तित्व का पूर्णतया ना कुछ हो रहना ।
जबकि सम्पूर्ण प्रयोगशाला आपके भीतर ही है । तो आप किसी अन्य आदमी का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं ? अपने आपका अध्ययन करें । आप ही सारी मानवता हैं । वृहत दूरूहपन । द्वंद्वात्मकता । अत्यंतिक संवेदना आप ही हैं । आप इस बात का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं कि - कोई अन्य आदमी के बारे में क्या कहता है । और

आप ही तो हैं । जो अन्य आदमी से संबंधित हैं । यही तो समाज है । आपने ही तो यह भयावह । कुरूप दुनिया गढ़ी है ? जो अब पूरी तरह अर्थहीन होती जा रही है । यही तो वजह है कि दुनियां भर के युवा विद्रोही हो रहे हैं । मेरे लिये यह एक अर्थहीन जीवन है । आदमी ने जो यह दुनियां गढ़ी है । उसकी अपनी ही मांगों का निक्षेप या फल है । उसकी अपनी - तुरन्त चाहिये । तात्कालिक प्राथमिकताओं । आदतों । महत्वाकांक्षाओं । लाभ । और ईर्ष्या का निचोड़ है । आप सोचते हैं कि आप मानव के संबंध में सभी पुस्तकों का अध्ययन कर लेंगे । और समाज में जाएंगें । तो आप अपने आपको समझ सकेंगे । लेकिन क्या यह ज्यादा सरल और सहज नहीं है कि - आप अपने से ही शुरूआत करें ?
जब मैं अपनी तुलना अन्य लोगों से नहीं करता । तब मैं समझ सकता हूं कि - मैं क्या हूँ ? जीवन भर । बचपन से । स्कूल उमृ से लेकर । हमारे मरने तक । हमें सिखाया जाता है कि - हम अपनी तुलना अन्य लोगों से करें । जबकि जब भी मैं किसी से अपनी तुलना करता हूँ । तो मैं अपने आपको ही नष्ट कर रहा होता हूँ । स्कूल में । एक साधारण स्कूल में भी । जहाँ कई लड़के होते हैं । उनमें जो कक्षा में मानीटर है । वह असल में क्या है ? आप लड़के को नष्ट कर रहे हैं । यही सब हम जिन्दगी भर करते हैं । तो अब क्या हम बिना तुलना किये जी सकते हैं । बिना अन्य किसी से भी तुलना किये ? इसका मतलब है । अब कुछ भी ऊंचा या नीचा नहीं होगा । अब ऐसा नहीं होगा कि - आपकी नजर में कोई एक श्रेष्ठ हो । उच्च हो । और कोई एक - हीन और निकृष्ट । आप वास्तव में वही हैं । जो कि आप हैं । और - जो आप हैं ? उसे जानने के लिए यह तुलना करने का तरीका आपको छोड़ना होगा । यह प्रक्रिया अनिवार्यतः समाप्त करनी होगी । यदि मैं हमेशा अपने को किसी संत । या किसी शिक्षक । या किसी बिजनेस मेन । लेखक । कवि । या अन्य लोगों से तुलना में रखूँ । तो मेरे साथ क्या होगा ? मैं क्या कर रहा हूं ? मैं इनसे तुलना कर रहा हूं । कुछ पाने के अनुकृम में । किसी उपलब्धि की दिशा में । या कुछ होने के चक्कर में । और यदि मैं किसी से अपनी तुलना नहीं करता । तो तब मैं यह जानना शुरू करता हूं कि - वास्तव में मैं क्या हूँ ? मैं क्या हूँ ? यह जानने की शुरूआत अधिक मोहक है । ज्यादा रूचिकर है । और अपने को जानना । सभी मूर्खता पूर्ण बेवकूफी भरी तुलनाओं के पार ले जाता है ।
अपने आपको जानने समझने के लिए । धैर्य । सहनशीलता । जागरूकता चाहिये । क्योंकि हमारा स्व या आत्म अनेक खण्डों वाले महा गृन्थ के समान है । जो केवल एक ही दिन में नहीं पढ़ा जा सकता । लेकिन यदि आप पढ़ना शुरू करें । तो आपको इसका प्रत्येक शब्द । प्रत्येक वाक्य । प्रत्येक पैराग्राफ । अपरिहार्य रूप से पढ़ना चाहिये । क्योंकि इसके प्रत्येक शब्द । वाक्य । और प्रत्येक पैराग्राफ में आपकी सम्पूर्णता के बारे में इशारे हैं । इसकी शुरूआत ही इसका अंत भी है । यदि आप जानते हैं कि - कैसे पढ़ा जाता है ? तो आप परम ज्ञान । परम समझदारी पा सकते हैं ।
वो चाहे खुशगवार हों । या पीड़ाजनक । अपने आपको जागृत रखने के लिए हम अनुभवों पर निर्भर रहते हैं । किसी भी प्रकार की चुनौती हो । हम अपने आपको जागा हुआ रखना चाहते हैं । जब कोई यह सच जान जाता है कि - चुनौतियों और अनुभवों पर निर्भरता । दिमाग को केवल और ज्यादा कुंद या जड़ बनाती है । और यह निर्भरता । हमें जागे रहने नहीं रहने देती । जब कोई यह समझ जाता है कि - हमने हजारों युद्ध लड़ें हैं । और एक बात भी नहीं सीखी कि हम अपने पड़ोसी को कल किसी क्षणिक सी उत्तेजना पर कत्ल कर सकते हैं । तब कोई कह सकता है कि - जागे जागृत रहने के लिए यह अनुभव और चुनौतियों पर निर्भरता हम क्यों चाहते हैं ? और क्या यह संभव है कि बिना किसी चुनौती के हम होश पूर्ण । जागृत । जागे रह सकें ? यह ही मुख्य असली प्रश्न है । हम चुनौतियों । अनुभवों पर यह सोच कर निर्भर रहते हैं कि ये हमें रोमांच । ज्यादा जिन्दापन । और ज्यादा त्वरितता देंगे । इनसे हमारा दिमाग और तेज होगा । पर इनसे ऐसा नहीं होता । तो यदि संभव हो । तो मैं अपने आपसे कहूं । सम्पूर्ण रूप से जागृत । सचेत । होश पूर्ण के लिए । आंशिक या टुकड़ों में नहीं । या अपने अस्तित्व के कुछ बिन्दुओं पर ही नहीं । पर पूरी तरह जागृति । क्या बिना किसी चुनौती के । बिना किसी अनुभव के द्वारा । इसका मतलब ये भी है कि क्या मैं खुद ही प्रबुद्ध हो सकता हूँ ? खुद को ही जगाये रह सकता हूँ । बिना किसी बाहरी प्रकाश पर निर्भर हुए ? इसका मतलब यह नहीं है कि - यदि मैं किसी संवेदना उत्तेजना पर निर्भर नहीं रहकर । निरर्थक हो रहूंगा । क्या मैं कोई ऐसी रोशनी हो सकता हूँ ? जो बाह्य उन्मुखी ना हो ? यह सब जानने समझने के लिए हमें अपने में ही बहुत गहरे जाना होगा । मुझे खुद को ही पूरी तरह जानना होगा । सम्पूर्णत अपने भीतर का एक एक कोना मेरा जाना समझा होना चाहिये । कोई भी ऐसा कोना नहीं होना चाहिए । जो दबा ढंका, छिपा या रहस्यपूर्ण हो । सब कुछ खुला होना चाहिए । हमें अपने स्व । अपनत्व के । हमारे पन के । सम्पूर्ण क्षेत्र के । प्रति जागृत होना चाहिये । जो कि हमारी वैयक्तिता और हमारी सामाजिकता की चेतना है । यह जागरण केवल तब हो सकता है । जब हमारा मन । वैयक्तिक और सामाजिक चेतना की परिधि के पार जाये । तभी कोई संभावना है कि - कोई अस्तित्व स्वतः प्रबुद्ध हो सके । और बाह्य उन्मुखी न हो ।
वास्तव में इस तरह की कोई चीज नहीं । जिसे कि हम कर्म कहते हैं ? कारण और प्रभाव । दो अलग या भिन्न चीजें नहीं हैं । आज का प्रभाव ही । कल का कारण है । ऐसा कोई अलग थलग पड़ा हुआ । कारण जैसा कुछ ? नहीं होता । जो प्रभाव पैदा करे । कारण और प्रभाव अंतः संबंधित हैं । कारण और प्रभाव के नियम । जैसी कोई चीज वास्तव में नहीं होती । जिसका मतलब यह भी है कि - ऐसी भी कोई चीज नहीं होती । जिसे कर्म कहें । हमारे लिये । कर्म का मतलब है । एक परिणाम । जिसके पीछे पहले कोई कारण रहा हो । पर प्रभाव और कारण के बीच के अन्तराल में जो होता है । वो है - समय । इस समय अन्तराल में अनन्त प्रकार के भारी बदलाव होते रहते हैं । जिससे हमें हर बार एक सा ही प्रभाव प्राप्त नहीं होता । और प्रभाव निरंतर नये कारण पैदा करते रहते हैं । जो कि मात्र प्रभाव का परिणाम ही नहीं होते । अतः यह ना कहें कि - मैं कर्म में विश्वास नहीं करता ? हमारा यह सब कहने का यह दृष्टिकोण नहीं है । कर्म का आशय है । बहुत ही सहज रूप से । एक ऐसा कृत्य । जिससे एक परिणाम भी जुड़ा हुआ है । और यह परिणाम पुनश्च । एक कारण की तरह भी है । यदि आम की गुठली को देखें । उसमें आम का वृक्ष होना निहित है । लेकिन मानव मन के साथ ऐसा ही कुछ नहीं है । मानव मन में अपने आप में रूपान्तरण और तत्काल समझ बूझ की सामर्थ्य । उसे किसी भी कारण से हमेशा अलग रख सकती है । जे. कृष्णमूर्ति

अकेले रहने में ही असली और अनन्त शक्ति है

केवल अबोधता निर्दोषता ही चाव पूर्ण और शौकिया हो सकती है । निर्दोषता के पास ही दुख नहीं होता । ना रोग बीमारी । हालांकि उसके पास इनके हजारों अनुभव होते हैं । अनुभव मन को भृष्ट नहीं करते । लेकिन वो जो पीछे छोड़ जाते हैं । अवशिष्ट । खरोंचे । और यादें । इनसे मन भृष्ट होता है । यह सब एक के ऊपर एक जमते जाते हैं । और तब शुरू होता है - दुख । यह दुख । समय होता है । जहां समय हो । वहां निर्दोषता सरलता नहीं होती । चाव । शौक से दुख पैदा नहीं हो सकता । दुख अनुभव है । अनुभव प्रतिदिन के जीवन का । पीड़ा से भरे जीवन । और क्षणिक सुखों के अनुभव । भयों और निश्चितताओं के अनुभव । आप अनुभवों से पलायन नहीं कर सकते । उनसे बच नहीं सकते । लेकिन इनकी जड़ें आपके मन में गहरे घर कर जायें । इसकी आवश्यकता भी नहीं है । इनकी जड़ें ही अन्य समस्याओं । वैषम्यताओं । द्वंद्वों और निरंतर संघर्षों को पालती पोसती हैं । इनसे बाहर आने का कोई उपाय नहीं है । सिवा इसके कि आप रोज ब रोज । कल आज कल की तरह मरते जायें ।  केवल और अकेला स्पष्ट मन ही शौक और चाव से भरा हो सकता है । बिना शौक और चाव के आप पत्तों पर जमी ओस और पानी पर पड़ती सूर्य की किरणों को नहीं देख सकते । मन की मौज । शौक । और चाव के बिना प्रेम भी नहीं होता ।
बिना किसी से जुड़े या बंधे हुए और निडर होकर । इच्छा को समझ कर उससे मुक्त रहने ।  इच्छा । जो कि भृमों की जननी है । उससे मुक्त रहने में आजादी है । अकेले रहने में ही असली और अनन्त शक्ति है । ज्ञान से ठुंसा हुआ । बंधनों में जकड़ा । नियोजित दिमाग कभी भी अकेला नहीं होता । जो धार्मिक । या वैज्ञानिक । या तकनीकी रूप से नियोजित हो । वह सदैव सीमित होता है । सीमितता ही द्वंद्व का मुख्य घटक है । इच्छाओं में जकड़े आदमी के लिये सौन्दर्य एक खतरनाक चीज है ।
किसी मनुष्य की मौत से अलग । अंततः किसी पेड़ की मौत । बहुत ही खूबसूरत होती है । किसी रेगिस्तान में एक मृत वृक्ष । उसकी धारियों वाली छाल । सूर्य की रोशनी और हवा से चमकी हुई उसकी देह । स्वर्ग की ओर उन्मुख नंगी टहनियां । और तने । एक आश्चर्यजनक दृश्य होता है । एक सैकड़ों साल पुराना विशाल पेड़ बागड़ बनाने । फर्नीचर या घर बनाने । या यूं ही बगीचे की मिट्टी में खाद की तरह इस्तेमाल करने के लिए मिनटों में 


काट कर गिरा दिया जाता है । सौन्दर्य का ऐसा साम्राज्य मिनटों में नष्ट हो जाता है । मनुष्य चरागाह । खेती और निवास के लिए बस्तियां बनाने के लिए जंगलों में गहरे से गहरे प्रवेश कर उन्हें नष्ट कर चुका है । जंगल और उनमें बसने वाले जीव लुप्त होने लगे हैं । पर्वत श्रंखलाओं से घिरी ऐसी घाटियां जो शायद धरती पर सबसे पुरानी रही हों । जिनमें कभी चीते । भालू और हिरन दिखा करते थे । अब पूरी तरह खत्म हो चुके हैं । बस आदमी ही बचा है । जो हर तरफ दिखाई देता है । धरती की सुन्दरता तेजी से नष्ट और प्रदूषित की जा रही है । कारें और ऊंची बहुमंजिला इमारतें ऐसी जगहों पर दिख रही हैं । जहां उनकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी । जब आप प्रकृति और चहुं और फैले वृहत आकाश से अपने सम्बन्ध खो देते हैं । आप आदमी से भी रिश्ते खत्म कर चुके होते हैं ।
प्रश्न - आपने हमें बताया कि - अपने दैनिक जीवन में गतिविधियों कार्य व्यवहार का अवलोकन करें । लेकिन वह क्या या कौन सा अस्तित्व है ? जो यह तय करेगा कि किसका अवलोकन करना है । और कब ? कौन तय करेगा कि उसे अवलोकन करना चाहिये ?
कृष्णमूर्ति - क्‍या आपने तय किया है कि - अवलोकन करना है ? या आप केवल अवलोकन कर रहे हैं ? क्या आपने

यह फैसला लिया । तय किया है । और कहा है कि - मैं अवलोकन करने और सीखने जा रहा हूँ ? तब वहां प्रश्न हो सकता है कि - कौन तय कर रहा है ? तब वहां पर कहा ये जा रहा है कि - मैं जरूर करूंगा ? और जब वह असफल रहता है । तब वह अपने आपको दंडात्मक भाषा में बार बार कहता है - मैं करूंगा ही । मुझे करना ही है । तब वहां पर संघर्ष होता है । तो मन मस्तिष्क की वह अवस्था जब - अवलोकन करना फैसला लिया । जाकर तय किया जाता है । वह कतई । कहीं से भी अवलोकन नहीं है । आप सड़क पर चले जा रहें है । और आपके बगल से गुजरा । आपने उसे देखा । और और खुद से कहा - कैसा गंदा है वह ? कैसी बदबू मार रहा है ? मैं कामना करता हूं कि - वह ऐसा और वैसा ना हो ।
जब आप अपने बगल से गुजरने वाले पर अपनी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक रहते हैं । जब आप इस बात के प्रति जागरूक रहते हैं कि - आप कोई फैसला दे रहें हैं । आलोचना कर रहें । या किसी चीज को न्यायोचित ठहराने की कोशिश कर रहें हैं । तब आप अवलोकन कर रहे हैं । तब आप यह नहीं कहते कि मुझे फैसला नहीं करना है । मुझे न्यायोचित नहीं ठहराना है । जब कोई आपकी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक होता है । तब किसी तरह का निर्णय नहीं होता । आपने देखा होगा किसी ने कल आपकी बेइज्जती की । तुरन्त आपकी मांसपेशियां फड़कने लगती हैं । आप असहज और गुस्सा हो सकते हैं । आप उसे नापसंद करना शुरू कर देते हैं । तो उस नापसंदगी के प्रति जागरूक रहना है । उन सारी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक रहें । यह फैसला ना करें कि - आपको अवलोकन करना है । अवलोकन करें । उस अवलोकन में कोई भी अवलोकन कर्ता नहीं होता । ना ही - अवलोक्य.. यानि देखने वाला । और - देखा 


जा रहा.. अलग नहीं होते । तब केवल अवलोकन मात्र ही होता है । अवलोकन कर्ता तब पैदा होता है । जब आप अवलोकन में हेर फेर या जोड़ना घटाना शुरू करते हैं । देखे गये को इकट्ठा कर उस पर नियंत्रण या कब्जा करने की कोशिश करते हैं । जब आप कहते हैं । वह मेरा मित्र है । क्योंकि वह मुझे प्रसन्न करता है । या वह मेरा मित्र नहीं है । क्योंकि उसने मेरे बारे में बुरा गंदा कहा । या आपके बारे में कुछ सच ही कहा । जो आप पसंद नहीं करते । तो अवलोकन को जमा । इकट्ठा । या संग्रह करने वाला । उसमें हेर फेर की गुंजाइश रखने वाला ही अवलोकन कर्ता है । जब आप बिना संग्रह करने । या बिना हेर फेर की इच्छा के अवलोकन करते हैं । तब कोई भी फैसला या निर्णय नहीं करते । आप सारा समय यही करते हैं । इस अवलोकन में निसर्गतः प्राकृतिक रूप से विशेष निश्चित निर्णय प्राकृतिक परिणाम के रूप में आतें हैं । पर यह वह निर्णय नहीं होते । जो अवलोकन कर्ता । अवलोक्य । या अवलोकन को इकट्ठा । जमा या संग्रह कर । उन पर नियंत्रण या कब्जा कर । या उनमें हेर फेर कर करता है । जे. कृष्णमूर्ति

आप आत्म विश्वास पा सकते हैं

क्या कोई ऐसा खोजी है । कोई ऐसा प्रश्न कर्ता है । जो अपने बारे में अन्य लोगों द्वारा दी गई सारी सूचनाओं । सारे ज्ञान को पूर्णतः त्याग कर । अपने आपको जानने की कोशिश करे ? क्या कोई ऐसा करेगा ? कोई भी नहीं । क्योंकि यह बहुत ही सुरक्षित और आसान है कि हम प्रभुत्व स्वीकार लें । तब कोई भी अपने आपको सुरक्षित संरक्षित महसूस करता है । लेकिन यदि कोई पूर्णतः अन्य लोगों । किसी के भी प्रभुत्व प्रभाव को त्याग दे । तो कोई कैसे अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है ? क्योंकि स्वत्व कोई स्थायी चीज तो है नहीं । यह निरंतर गतिशील है । जिन्दा है । कार्य कर रहा है । कोई उस चीज के बारे में कैसे देखे जाने । अवलोकन करे । जो निरंतर आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत गतिशील है । पूरे आग्रह के साथ । आकांक्षाओं । लोभ । रोमांस के साथ ? जिसका तात्पर्य है । क्या कोई अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है । अपनी सभी इच्छाओं और भयों सहित । बिना अन्य लोगों से ज्ञान लिये । या बिना उस ज्ञान के । जो उसने अपने आपको जानने के लिए स्वयं ही इकट्ठा कर रखा है ।
स्‍वाधीनता दी नहीं जा सकती । स्‍वाधीनता कुछ ऐसा है । जो तब आती है । जब आप उसे नहीं खोजते । यह तब अपने आप आती है । जब आप जान जाते हैं कि - आप कैदी हैं । जब आप अपने ही बारे में जानते हैं कि आप यंत्र बद्ध से हैं । जब आप जानते हैं कि आप समाज । संस्कृति । परंपराओं । और वो सब । जो आप कहते हैं । उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं । स्‍वाधीनता एक सामान्यपन है । यह असामान्य चीज नहीं है । और यह प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्णत । बाहरी और आंतरिक रूप से होनी ही चाहिये । बिना स्‍वाधीनता के आपकी दृष्टि में स्पष्टता नहीं होती ।

बिना स्‍वाधीनता के आप प्रेम नहीं कर सकते । बिना स्‍वाधीनता के आप सत्य की खोज नहीं कर सकते । बिना स्‍वाधीनता के आप मन की सीमाओं से पार नहीं पा सकते । आपको अपने पूरे अस्तित्व से इसकी अभीप्सा जगानी होगी । जब आप अपने से ही इसकी अत्यंतिक मांग उठायेंगे । तब आप अपने में ही इसे पा सकेंगे । और यह जान सकेंगे कि - स्‍वाधीनता । सामान्य पन सहज पन क्या है ? और नियत चिह्नों पर चलने । लकीरें पीटने से स्‍वाधीनता नहीं मिलती । ना ही यह आदतों का प्रतिफल होती है ।
जीवन में प्रति पल हो रहे परिवर्तनों के । निरन्तर स्पर्श में रहने को देखना । ध्यान है । एक व्यक्ति जो एक पापी से संत होने की विकास यात्रा में है । वह एक संभृम से अन्य भृम में यात्रा कर रहा है । यह सारी गति भृम में ही है ।  जब मन यह भृम ही देख लेता है । तब वह पुनः भृम नहीं पैदा करता । ना ही किसी तरह की नाप जोख या मापने को जारी रखता है । अंततः इसलिए बेहतर होते होते । विचार का अंत आ जाता है । इन सबके साथ ही मुक्ति की अवस्था उदित होती है । और यही पवित्र पावन है । केवल यहीं वह उपलब्ध होता है । जो निरंतर है ।
सब तरह से मुक्त होना है । ज्ञात से मुक्ति । मन की वह अवस्था । जो कहती है - मैं नहीं जानता ? और जो उत्तर की राह भी नहीं तकती । ऐसा मन जो पूर्णतः किसी तलाश में नहीं होता । ना ही ऐसी आशा करता है । ऐसे मन की 


अवस्था में आप कह सकते हैं कि - मैं समझा । केवल यही वह अवस्था होती है । जब मन मुक्त होता है । इस अवस्था से आप उन चीजों को भी एक अलग ही तरह से देख सकते । जिन्हें आप जानते हैं । ज्ञात से आप अज्ञात को नहीं देख सकते । लेकिन जब कभी एक बार आप मन की उस अवस्था को समझ जाते हैं । जो मुक्त है । जो मन कहता है कि - मैं नहीं जानता । और अजाना ही रहता है । इसलिए वह अबोध है । उस अवस्था से एक नागरिक । एक विवाहित । या आप जो भी हों वास्तविक कर्म करना शुरू करते हैं । तब आप जो भी करते हैं । उसमें एक सुसंगतता होती है । जीवन में महत्व होता है ।
लेकिन हम ज्ञात की सीमा में ही रहते हैं । उसकी सभी विषमताओं के साथ । जी तोड़ प्रयासों । विवादों और पीड़ाओं के साथ और वहां से हम तलाश करते हैं । उसकी । जो अज्ञात है । इसलिए वास्तव में हम मुक्ति नहीं चाह रहे हैं । हम जो चाहते हैं । वह है । जो है । उसमें ही निरंतरता । वही पुरानी चीजों को और खींचना या लम्बाना । जो ज्ञात ही हैं ।
श्रीमन ! प्रतिभा और गूढ़ता हमेशा ही आवरण में सहेजने चाहिये । क्योंकि इनको ज्यादा उघाड़ना केवल अन्धेपन का कारण ही बनता है । इसलिए मेरा यह मन्तव्य कभी भी नहीं रहता कि - मैं लोगों को अन्धा करूं । या अपनी प्रवीणता का प्रदर्शन करूँ । यह निहायत ही मूर्खता पूर्ण है । लेकिन जब कोई चीजों को बहुत ही साफ साफ देखता है । तो वह उन्हें अपने से परे रखने में सहायता नहीं पाता । इन्हें ही आप प्रतिभा और गूढ़ता के रूप में सोचते हैं ।  मेरे लिये । मैं जो भी कह रह हूँ । वह प्रतिभा पूर्ण नहीं है । ऐसा सहज निश्चित है । यह एक तथ्य है । एक और बात । आप चाहते हैं कि - मैं एक आश्रम या समुदाय की स्थापित करूँ । अब बतायें । क्यों ? आप मुझसे ये क्यों चाहते हैं कि - एक समुदाय की स्थापना करूं ? आप कह रहे हैं कि वह एक सन्दर्भ या पहचान के रूप में कार्य करेगा । या वो कुछ एक सफल प्रयोग के रूप में रखा । या दिखाया जा सकेगा ।  यही तो है । सन्दर्भ या पहचान का तात्पर्य । क्या ऐसा ही नहीं है ? एक समुदाय । जहाँ इसी तरह की सारी चीजें चलायी जायेंगी । यही है । जो आप चाहते हैं । मैं नहीं चाहता कि किसी आश्रम या समुदाय की स्थापना हो । आप चाहते हैं । अब आप क्यों इस तरह के समुदाय की मांग कर रहे हैं ? मैं आपको बताता हूँ कि - क्यों ? यह बहुत ही रूचि कर है । नहीं ? आप ऐसा इसलिए चाहते हैं कि आप अन्य लोगों के साथ 


उससे जुड़ना चाहते हैं । और एक समुदाय गढ़ना चाहते हैं । लेकिन आप अपने ही साथ एक समुदाय आरंभ करना नहीं चाहते । आप चाहते हैं कि कोई अन्य ऐसा करे । और जब कोई समुदाय की स्थापना कर दे । तब आप उसे ज्वाइन कर लें । दूसरे शब्दों में श्रीमन आप अपना ही समुदाय आरंभ करने से घबराते हैं । इसलिए एक सन्दर्भ रूप में । कोई आश्रम या समुदाय चाहते हैं । यही है । आप चाहते हैं कि कोई आपको किसी तरह की जिम्मेदारी या दायित्व दे । संस्थापित करे । और आप उसे प्रभुता पूर्वक सहेजे । सम्हालें । चलायें । अन्य शब्दों में आप अपने आप में आत्म विश्वस्त नहीं हैं । इसलिए आप चाहते हैं कि किसी समुदाय की स्थापना हो । और आप उसे ज्वाइन कर लें ।
श्रीमन ! आप जहाँ भी हैं । आप वहीं एक समुदाय पा सकते हैं । लेकिन वह समुदाय आप तभी पा सकते हैं । जब आपमें आत्म विश्वास हो । समस्या यह है कि - आपमें आत्म विश्वास ही नहीं है । आपमें आत्म विश्वास क्यों नहीं है ? मेरा आत्म विश्वास का अभिप्राय क्या है ? एक व्यक्ति । जो कोई परिणाम को उपलब्ध करना चाहता है । वह वो सब प्राप्त करता है । जो वह पाना चाहता है । एक व्यापारी । एक वकील । एक पुलिसिया । जनरल । ये लोग । आत्म विश्वास से भरे हैं । आत्म विश्वास से पूर्ण होते हैं । लेकिन यहीं आप में आत्म विश्वास नहीं है । क्यों ? एक साधारण सा कारण है कि - आपने प्रयोग नहीं किया है । आपने जो भी समझा है । उसे व्यवहार में नहीं लायें हैं । जब आप इसे प्रयोग में लायेंगे । तब आपके पास आत्म विश्वास होगा । दुनिया में कोई भी व्यक्ति आपको आत्म विश्वास नहीं दे सकता ? न कोई किताब । ना कोई शिक्षक । आपको आत्म विश्वास से नहीं भर सकते । प्रोत्साहन आत्म विश्वास नहीं होता । प्रोत्साहन अत्यंत सतही । बचकाना । अपरिपक्व चीज है । आत्म विश्वास आता है । जब आप प्रयोग में उतरते हैं । जब आप राष्ट्रीयता से प्रयोग में उतरते हैं । तो देखिये । बुद्धि तो बहुत ही छोटी सी चीज है । तो जब भी आप प्रयोग में हो । व्यावहारिक हों । आपमें आत्म विश्वास होता है । क्योंकि आपका मन तेज द्रुतगामी और लचीला होता है । तब आप जहाँ भी होंगे । वहीं आश्रम होगा । आप अपने आप ही एक समुदाय की स्थापना कर सकेंगे । यह स्पष्ट है । क्या नहीं ?
आप किसी भी समुदाय से अधिक महत्वपूर्ण हैं । यदि आप किसी समुदाय की सदस्यता ग्रहण करें । तो आप वही रहेंगे । जो कि आप हैं । कोई आपका वरिष्ठ होगा । आपके लिए नियम कायदे कानून होंगे । अनुशासन होंगे । आप उस बेकार के समुदाय में वही कोई श्री राम या श्री राव होंगे । आप किसी समुदाय की आकांक्षा तभी करते हैं । जब आप चाहते हैं कि - आपको कोई निर्देशित करे । आपको बताये कि आपको क्या करना है । एक आदमी जो अपने आपको निर्देशित हुए देखना चाहता है । वह अपनी आत्म विश्वास हीनता को जानता है । आप आत्म विश्वास पा सकते हैं । पर आत्म विश्वास संबंधी बातें करके ही नहीं । अपितु जब आप प्रयोग में उतरेंगे । तब आप कब कोशिश करेंगे । श्रीमन । केवल आप ही हैं । जो सन्दर्भ हो सकते हैं । ना कि कोई समुदाय । या आश्रम । और जब कोई समुदाय या आश्रम आपकी पहचान बने । आप अपने आप को खो देते हैं । मुझे आशा करता हूँ कि - बहुत से लोग आपस में जुड़े । और प्रयोग करें । आत्म विश्वास से भरें । इसलिए इस कार्य में इकट्ठा आयें । लेकिन वे लोग जो बाहर ही रहना चाहते हैं । और कहते हैं - मैं सदस्यता ग्रहण करना चाहता हूँ । इसलिए आप कोई समुदाय क्यों नहीं स्थापित करते । यह निहायत ही मूर्खता पूर्ण प्रश्न करने वाले हैं । जे. कृष्णमूर्ति
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