शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

क्या प्रेम आमोद प्रमोद या मजा है ?

प्रेम क्या है ?  हम यह चर्चा नहीं कर रहे कि - प्रेम को क्या होना चाहिये ? हम यह देख रहे हैं कि - वो क्या है । जिसे हम प्रेम कहते हैं ? आप कहते हैं - मैं अपनी पत्नी से प्यार करता हूँ । पर मैं नहीं जानता कि आपका प्रेम क्या है ? मुझे संदेह है कि आप किसी भी चीज से प्यार प्रेम करते हों । क्या आप प्रेम शब्द का अर्थ भी जानते हैं ? क्या प्रेम आमोद प्रमोद या मजा है ? क्या प्रेम ईर्ष्‍या है ? क्या वह व्यक्ति प्रेम कर सकता है । जो महत्वाकांक्षी हो ? हो सकता है । वो अपनी पत्नी के साथ सोता हो । कुछ बच्चे भी पैदा कर लिये हों । एक व्यक्ति जो राजनीति में । या व्यापार जगत में । एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने के लिए संघर्ष रत हो । अथवा धार्मिक जगत में । जहां कि - वो एक संत बनना चाहता हो । जहां कि उसे इच्छा रहित होना है । यह सब महत्वाकांक्षाओं । आक्रामकता । इच्छाओं के ही अवयव हैं ।
क्या एक व्यक्ति जो कि प्रतियोगिता में । दौड़ में शामिल हो । वो प्रेम में हो सकता है ? और आप सब प्रतियोगिता में हैं । क्या आप नहीं ? अच्छे जाब । बेहतर पद प्रतिष्ठा । अच्छा घर । अधिक महान विचार । अपनी अधिक सुस्पष्ट छवि बनाने में लगे हैं । आप सब जानते हैं कि - आप इन सबसे गुजर ही रहे हैं । क्या यह सब प्रेम है ? क्या आप तब प्रेम कर सकते हैं । जब आप यह सब अत्याचार सम्पन्न करते गुजर रहे हों । जब आप अपनी ही पत्नि या पति या बच्चों पर प्रभुत्व जमा रहे हों ? जब आप ताकत या शक्ति की खोज में लगे हों ? तब क्या प्रेम की कोई संभावना बचती है ? तो जो जो प्रेम नहीं है । उस सबको नकारते अस्वीकार करते हुए हम जहां पहुंचते हैं । वो प्रेम होता है । आप समझे । श्रीमान ? आपको उस सबको अस्वीकार या नकारना होगा । जो प्रेम नहीं है । जो कि

महत्वाकांक्षा ना हो । प्रतियोगिता ना हो । क्रोध आक्रामकता ना हो । हिंसा ना हो । भले ही वो बोलचाल में हो । या आपके कृत्यों में या विचारों में । जब आप उस सबको अस्वीकार नकार देंगे । जो प्रेम नहीं है । तब आप जानेंगे कि - प्रेम क्या है ?
क्या क्षमा प्रेम है ? क्षमा में क्या परिलक्षित होता है ? आपने मेरा अपमान किया । और मैं गुस्सा या नाराज हो गया । मैंने कहा - मैं तुम्हें माफ करता हूँ । पहले तो ” मैं “ ने अपमान को ध्यान में ले लिया । स्वीकार लिया । लेकिन बाद में मेरे ” मैं “ ने उसे अस्वीकार कर दिया । इसका मतलब क्या है ? ” मैं “ ही केन्द्रीय छवि हूं । यानि ” मैं “ वो हूं । जो किसी को क्षमा कर रहा है । जब तक क्षमा कर देने का मनो भाव रहता है । तब तक मैं महत्वपूर्ण रहता है । ना कि वो व्यक्ति जिसने मेरा अपमान किया । तो तब जबकि पहले तो मैं क्रुद्ध हो जाऊं । गुस्से का अम्बार लगाऊं । और फिर उसे इंकार अस्वीकार करूं । जिसे आप क्षमा करना कह रहे हैं । यह प्रेम नहीं है । एक व्यक्ति जो प्रेम में है । जाहिर है । उसमें शत्रु भाव होगा ही नहीं । इसलिए मान अपमान जैसी सभी चीजों के प्रति वो एक साथ तटस्थ उदासीन होगा । सहानुभूति । क्षमाशीलता । कब्जा जताने वाले । या आधिपत्य सूचक सम्बंध । ईर्ष्या । और भय । यह सब चीजें प्रेम नहीं हैं । यह सब मन हैं । क्या ऐसा नहीं है ?
स्पष्टतः प्रेम भावुकता नहीं है । कपोल कल्पनाओं में होना । या भावुक हो जाना । प्रेम नहीं है । क्योंकि ख्यालीपन और भावुकता । ये संवेदनाएं । अनुभूतियाँ । उत्तेजनाएं मात्र हैं । एक धार्मिक व्यक्ति जो ईसामसीह या कृष्ण का नाम लेकर रो रहा हो । या अपने गुरू का । या किसी अन्य का । वो केवल कल्पनाओं में में बह रहा । या भावुक मात्र है । वह उत्तेजनाओं में मग्न है । संवेदना या उत्तेजना । विचार की प्रक्रिया है । और विचार प्रेम नहीं है । विचार संवेदना का परिणाम है । तो वो जो भावुक व्यक्ति है । जो भावनाओं में बह रहा है । प्रेम नहीं जान सकता । क्या हम ख्यालों और भावुकता से भरे नहीं हैं ? ख्यालों भावों में बह जाना । आत्म अहं विस्तार का ही एक रूप है । जो ख्यालों में ही रह रहा हो । वो स्पष्टतः प्रेम में नहीं हो सकता । क्योंकि यदि एक ख्याली व्यक्ति की कल्पनाओं को प्रत्युत्तर नहीं मिलता । तो बहुत ही क्रूर व्यक्ति हो सकता है । यदि उसकी कल्पनाओं को को बह निकलने की जगह

नहीं मिलती । तो वह बहुत ही क्रूर हो सकता है । एक भावुक व्यक्ति को नफरत । युद्ध । और नर संहार के लिए भड़काया उकसाया जा सकता है । एक व्यक्ति जो अपने नाजुक ख्यालों में बह रहा है । अपने धर्म के लिए आंसुओं से भरा हुआ है । निश्चित ही उसके पास प्रेम नहीं होता ।
हम अपनी इच्छाओं के लिए पागल हुए जाते हैं । हम अपने आपको इच्छा द्वारा तुष्ट करना चाहते हैं । लेकिन हम यह नहीं देखते कि - वैयक्तिक सुरक्षितता की इच्छा । व्यक्तिगत उपलब्धि । सफलता । शक्ति । व्यक्तिगत प्रतिष्ठा आदि इन इच्छाओं ने इस संसार में क्या कहर बरपाया हुआ है । हमें यह अहसास तक नहीं है कि - हम ही उस सबके जिम्मेदार हैं । जो हम कर रहे हैं । अगर कोई इच्छा को । उसकी प्रकृति को समझ जाये । तो उस इच्छा का स्थान या मूल्य ही क्या है ?  क्या वहां इच्छा का कोई स्थान है । जहां प्रेम है ? या जहां इच्छा हो । क्या वहां प्रेम के लिए कोई जगह बचती है ?
प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते । वास्तव में आपके पास प्रेम है ही नहीं । आपके पास खुशी या मजा है । उत्तेजना या रोमांच है । यौन संबंध हैं । उसी तरह जैसे कि - एक परिवार है । पत्नि या पति है । जिस तरह देश से जुड़ाव है । लेकिन ये जुड़ाव सा सम्बंध प्रेम नहीं । और प्रेम कुछ ऐसा नहीं कि - बहुत दिव्य हो । या अपवित्र चीज हो । प्रेम में विभाग या भेद है ही नहीं । प्रेम का मतलब है । कुछ ऐसा । जिसका आप ध्यान रखें । खयाल रखें । जैसे किसी वृक्ष की देखभाल । संरक्षण । या पड़ोसी का ध्यान या खयाल रखना । या अपने ही बाल बच्चों की देखभाल । और ख्याल रखना । यह ध्यान रखना कि - आपका बच्चे को उचित शिक्षा मिले । यह नहीं कि स्कूल भेज दिया । और भूल गये । उचित शिक्षा का मतलब ये भी नहीं कि उसे बस तकनीकी शिक्षा दी जाये । यह भी देखना कि बच्चे को

उचित सही शिक्षक मिले । सही भोजन पानी मिले । बच्चा जीवन को समझे । सैक्स को समझे । बच्चे को केवल ऐसी शिक्षा देना । जिसमें वे भूगोल । गणित या तकनीकी चीजें सीख ले । जो उसको काम धंधा दिलाने में काम आयें । ये प्रेम नहीं है ।
प्रेम के बिना आप नैतिक नहीं हो सकते । हो सकता है । आप सम्मानीय हो जायें । समाज के अनुरूप हो जायें कि - आप चोरी नहीं करेंगे । पड़ोसी की पत्नी को लाईन नहीं मारेंगे ? आप यह नहीं करेंगे । वो नहीं करेंगे । लेकिन यह नैतिकता नहीं है । यह शील या सद्गुण नहीं है । यह केवल सम्मानीयता के अनुरूप होना है । आदर सम्मान धरती पर सबसे भयानक और घृणित चीज है ? क्योंकि ये बहुत ही कुरूप चीजों पर पर्दा डालता है । जहां पर प्रेम होता है । वहां पर ही नैतिकता होती है । जहां पर प्रेम हो । वहां आप जो भी करें । वो नैतिक होता है । जे. कृष्णमूर्ति
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