शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

मैं कर्म में विश्वास नहीं करता ?

निश्चित ही जो खुद को सांसारिक राजनीति में खपा कर खो चुके हैं । उनके लिये खुद को भीड़ से अलग करना ही समस्या नहीं । अपितु जीवन में वापस लौटना । प्रेम में उतरना । सहज सरल होना भी मुख्य कार्य है । प्रेम के बिना आप कुछ भी करें । आप कर्म की सम्पूर्णता को नहीं जान सकते । अकेला प्रेम ही आदमी को बचा सकता है । यही सत्य है । श्रीमान ! हम लोग प्रेम में नहीं है । हम वास्तव में उतने सहज सरल नहीं रह गये हैं । जितना हमें होना चाहिए क्यों ? क्योंकि आप दुनियां को सुधारने । संवारने । जिम्मेदारियों । प्रतिष्ठा । सामने वाले से कुछ हटकर करने से । कुछ विशेष होने से सरोकार रखे हुए हैं । दूसरों के नाम पर आप अपने स्वार्थों के गर्त में डूबे हैं । आप अपने ही घोंघेनुमा कवच में समाए हैं । आप समझते हैं कि - आप ही इस सुन्दर संसार का केन्द्र हैं । किसी वृक्ष । किसी फूल । या बहती हुई नदी को देखने के लिए आप कभी भी नहीं ठहरते । और अगर कभी ठहर भी जाते हैं । तो आपकी आंखों में मन में चलते हुए कई विचार । स्मृतियाँ । और जाने क्या क्या उतर आता है । बस आपकी आंखों में सौन्दर्य और प्रेम ही नहीं उमड़ता । पुनश्च - यही सत्य है । लेकिन एक व्यक्ति के करने के लिये क्या है ? बस देखें । समझें । और सहज सरल रहें ?
अनुभव की भूख । या तृष्णा ही । भृम का । माया का । आरंभ है । जैसा कि अब आप जानते हैं । आपकी दृष्टि । आपकी पृष्ठ भूमि । या अतीत का प्रेक्षण । या अनुमान है । या परिस्थितियों द्वारा संभावनाओं को देखना है । और यह ही वह अनुमान या संभावनाएं हैं । जो आपने अनुभव किये हैं । निश्चित ही यह ध्यान नहीं हैं । ध्यान का आरंभ वहां से होता है । जब आप अपनी पृष्ठ भूमि । अपने आपको समझना शुरू करते हैं । बिना अपनी पृष्ठ भूमि को । बिना अपने आपको समझे । आप जिसे ध्यान कहते हैं । वो चाहे कितना ही आनंददायक या दुखदायक हो । वो आत्म सम्मोहन है । आप आत्म नियंत्रण का अभ्यास करते हैं । विचारों में महारत हासिल करते हैं । और

अनुभवों में आगे बढ़ने के लिए ध्यान केन्द्रित करते हैं । यह आत्म स्व केन्द्रित धंधा है । यह ध्यान नहीं है । और यह देखना जानना कि - क्या ध्यान नहीं है । यह ही ध्यान का आरंभ है । झूठ के सच को देख लेने पर ही । मन असत्य से मुक्त होता है । झूठ से मुक्त होने की आकांक्षा से ही झूठ से आजादी नहीं मिल जाती । यह मुक्ति तब आती है । जब हमें किसी सफलता । किसी निर्णय । परिणाम या अंत को उपलब्ध हो जाने से सरोकर नहीं होता । सारी खोजों पर विराम होने पर ही वह संभावना होती है कि - वो अस्तित्व में आये । जो अनाम है ।
केवल एक ही बात मायने रखती है । वो है - भलाई । प्रेम । बुद्धिमानी इत्यादि अमल में आये । कर्म भी हो । क्या भलाई वैयक्तिक और सामूहिक होती है ? क्या प्रेम वैयक्तिक और अवैयक्तिक होता है ? क्या बुद्धिमानी मेरी या तुम्हारी या और किसी की होती है ? यदि यह मेरी या तुम्हारी है । तो यह बुद्धिमानी या प्रेम या भलाई नहीं । यदि भलाई वैयक्तिक और सामूहिक रूप से किसी विशेष प्राथमिकता या निर्णय की तरह हो । तो वह भलाई नहीं रह जायेगा । भलाई वैयक्तिक्ता या सामूहिकता के नाम पर घर के पिछवाड़े में फेंक देने जैसी चीज नहीं है । भलाई । वैयक्तिता । या सामूहिकता । इन दोनों से स्वतंत्र रहकर फूलती फलती है ।
जब आप अवलोकन करते हैं । सड़क पर धूल देखते हैं । यह देखते हैं कि राजनीतिज्ञ कैसा व्यवहार कर रहे हैं । अपनी पत्नि के प्रति । अपने बच्चों के प्रति । अपना ही बर्ताव देखते हैं । इसी तरह की अन्य बातें । तो यही रूपान्तरण होता है । क्या आप समझे ? अपनी दिनचर्या को तरतीब देना । कार्यों में स्वरों को साध लेने सा सामन्यीकरण ही रूपान्तरण है । कुछ ऐसा नहीं । जो बहुत ही असामान्य । या जो दुनिया के बाहर की बात हो । जब कोई - स्पष्ट रूप से कुछ नहीं देख पाता । और वह तर्क युक्ति संगत रूप से इसके प्रति जागरूक हो जाता है । 


और इसे बदलता है । अपनी आदत को तोड़ता है । अपनी अस्पष्टता को विराम देता है । यही रूपान्तरण है । यदि आपको ईर्ष्या या जलन हो रही है । तो इसे देखें । इसे फूलने फलने का मौका दिये बिना इसे तुरन्त बदलें । यह रूपान्तरण होगा । जब आपको लोभ । हिंसा । महत्वाकांक्षा पकड़ लेते हैं । या जब आप खुद को किसी पवित्र आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह बनाना चाहते हैं । तो यह देखें कि आपकी ऐसी सोच । आपका ऐसा होना । कितनी निरर्थक दुनियां की रचना कर रहा है । मुझे नहीं पता । आप इस सबके प्रति जागरूक हैं । या नहीं । प्रतियोगिता विश्व का विनाश कर रही है । दुनियां रोज ब रोज अधिकाधिक प्रतियोगी होती जा रही है । अधिकाधिक आक्रामक होती जा रही है । और अगर आप अपनी यह प्रवृत्ति तुरन्त बदलते हैं । तो यह रूपान्तरण है । यह आप इस समस्या में बहुत गहराई तक जाएं । तो आप स्पष्टतः पाएंगे कि - विचार प्रेम को नकारता है । इसलिए किसी को भी यह प्रश्न उठाना चाहिए । तलाश या पता करना चाहिये कि - क्या विचार का अन्त हो सकता है ? क्या समय का अन्त हो सकता है ? हमें इन प्रश्नों पर दार्शनिक अंदाज में मुद्राएं नहीं बनानी हैं । इस पर चर्चाएं बहसें नहीं करनी । पर यह ईमानदारी से पता करना है । वास्तव में सच्चे रूप में । यही रूपान्तरण है । जब आप रूपान्तरण की गहराई में जाते हैं । तो आप पाएंगे कि - रूपान्तरण का मतलब है - किसी भी तरह के कुछ होने । तुलना के विचार का अभाव । यह है । अस्तित्व का पूर्णतया ना कुछ हो रहना ।
जबकि सम्पूर्ण प्रयोगशाला आपके भीतर ही है । तो आप किसी अन्य आदमी का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं ? अपने आपका अध्ययन करें । आप ही सारी मानवता हैं । वृहत दूरूहपन । द्वंद्वात्मकता । अत्यंतिक संवेदना आप ही हैं । आप इस बात का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं कि - कोई अन्य आदमी के बारे में क्या कहता है । और

आप ही तो हैं । जो अन्य आदमी से संबंधित हैं । यही तो समाज है । आपने ही तो यह भयावह । कुरूप दुनिया गढ़ी है ? जो अब पूरी तरह अर्थहीन होती जा रही है । यही तो वजह है कि दुनियां भर के युवा विद्रोही हो रहे हैं । मेरे लिये यह एक अर्थहीन जीवन है । आदमी ने जो यह दुनियां गढ़ी है । उसकी अपनी ही मांगों का निक्षेप या फल है । उसकी अपनी - तुरन्त चाहिये । तात्कालिक प्राथमिकताओं । आदतों । महत्वाकांक्षाओं । लाभ । और ईर्ष्या का निचोड़ है । आप सोचते हैं कि आप मानव के संबंध में सभी पुस्तकों का अध्ययन कर लेंगे । और समाज में जाएंगें । तो आप अपने आपको समझ सकेंगे । लेकिन क्या यह ज्यादा सरल और सहज नहीं है कि - आप अपने से ही शुरूआत करें ?
जब मैं अपनी तुलना अन्य लोगों से नहीं करता । तब मैं समझ सकता हूं कि - मैं क्या हूँ ? जीवन भर । बचपन से । स्कूल उमृ से लेकर । हमारे मरने तक । हमें सिखाया जाता है कि - हम अपनी तुलना अन्य लोगों से करें । जबकि जब भी मैं किसी से अपनी तुलना करता हूँ । तो मैं अपने आपको ही नष्ट कर रहा होता हूँ । स्कूल में । एक साधारण स्कूल में भी । जहाँ कई लड़के होते हैं । उनमें जो कक्षा में मानीटर है । वह असल में क्या है ? आप लड़के को नष्ट कर रहे हैं । यही सब हम जिन्दगी भर करते हैं । तो अब क्या हम बिना तुलना किये जी सकते हैं । बिना अन्य किसी से भी तुलना किये ? इसका मतलब है । अब कुछ भी ऊंचा या नीचा नहीं होगा । अब ऐसा नहीं होगा कि - आपकी नजर में कोई एक श्रेष्ठ हो । उच्च हो । और कोई एक - हीन और निकृष्ट । आप वास्तव में वही हैं । जो कि आप हैं । और - जो आप हैं ? उसे जानने के लिए यह तुलना करने का तरीका आपको छोड़ना होगा । यह प्रक्रिया अनिवार्यतः समाप्त करनी होगी । यदि मैं हमेशा अपने को किसी संत । या किसी शिक्षक । या किसी बिजनेस मेन । लेखक । कवि । या अन्य लोगों से तुलना में रखूँ । तो मेरे साथ क्या होगा ? मैं क्या कर रहा हूं ? मैं इनसे तुलना कर रहा हूं । कुछ पाने के अनुकृम में । किसी उपलब्धि की दिशा में । या कुछ होने के चक्कर में । और यदि मैं किसी से अपनी तुलना नहीं करता । तो तब मैं यह जानना शुरू करता हूं कि - वास्तव में मैं क्या हूँ ? मैं क्या हूँ ? यह जानने की शुरूआत अधिक मोहक है । ज्यादा रूचिकर है । और अपने को जानना । सभी मूर्खता पूर्ण बेवकूफी भरी तुलनाओं के पार ले जाता है ।
अपने आपको जानने समझने के लिए । धैर्य । सहनशीलता । जागरूकता चाहिये । क्योंकि हमारा स्व या आत्म अनेक खण्डों वाले महा गृन्थ के समान है । जो केवल एक ही दिन में नहीं पढ़ा जा सकता । लेकिन यदि आप पढ़ना शुरू करें । तो आपको इसका प्रत्येक शब्द । प्रत्येक वाक्य । प्रत्येक पैराग्राफ । अपरिहार्य रूप से पढ़ना चाहिये । क्योंकि इसके प्रत्येक शब्द । वाक्य । और प्रत्येक पैराग्राफ में आपकी सम्पूर्णता के बारे में इशारे हैं । इसकी शुरूआत ही इसका अंत भी है । यदि आप जानते हैं कि - कैसे पढ़ा जाता है ? तो आप परम ज्ञान । परम समझदारी पा सकते हैं ।
वो चाहे खुशगवार हों । या पीड़ाजनक । अपने आपको जागृत रखने के लिए हम अनुभवों पर निर्भर रहते हैं । किसी भी प्रकार की चुनौती हो । हम अपने आपको जागा हुआ रखना चाहते हैं । जब कोई यह सच जान जाता है कि - चुनौतियों और अनुभवों पर निर्भरता । दिमाग को केवल और ज्यादा कुंद या जड़ बनाती है । और यह निर्भरता । हमें जागे रहने नहीं रहने देती । जब कोई यह समझ जाता है कि - हमने हजारों युद्ध लड़ें हैं । और एक बात भी नहीं सीखी कि हम अपने पड़ोसी को कल किसी क्षणिक सी उत्तेजना पर कत्ल कर सकते हैं । तब कोई कह सकता है कि - जागे जागृत रहने के लिए यह अनुभव और चुनौतियों पर निर्भरता हम क्यों चाहते हैं ? और क्या यह संभव है कि बिना किसी चुनौती के हम होश पूर्ण । जागृत । जागे रह सकें ? यह ही मुख्य असली प्रश्न है । हम चुनौतियों । अनुभवों पर यह सोच कर निर्भर रहते हैं कि ये हमें रोमांच । ज्यादा जिन्दापन । और ज्यादा त्वरितता देंगे । इनसे हमारा दिमाग और तेज होगा । पर इनसे ऐसा नहीं होता । तो यदि संभव हो । तो मैं अपने आपसे कहूं । सम्पूर्ण रूप से जागृत । सचेत । होश पूर्ण के लिए । आंशिक या टुकड़ों में नहीं । या अपने अस्तित्व के कुछ बिन्दुओं पर ही नहीं । पर पूरी तरह जागृति । क्या बिना किसी चुनौती के । बिना किसी अनुभव के द्वारा । इसका मतलब ये भी है कि क्या मैं खुद ही प्रबुद्ध हो सकता हूँ ? खुद को ही जगाये रह सकता हूँ । बिना किसी बाहरी प्रकाश पर निर्भर हुए ? इसका मतलब यह नहीं है कि - यदि मैं किसी संवेदना उत्तेजना पर निर्भर नहीं रहकर । निरर्थक हो रहूंगा । क्या मैं कोई ऐसी रोशनी हो सकता हूँ ? जो बाह्य उन्मुखी ना हो ? यह सब जानने समझने के लिए हमें अपने में ही बहुत गहरे जाना होगा । मुझे खुद को ही पूरी तरह जानना होगा । सम्पूर्णत अपने भीतर का एक एक कोना मेरा जाना समझा होना चाहिये । कोई भी ऐसा कोना नहीं होना चाहिए । जो दबा ढंका, छिपा या रहस्यपूर्ण हो । सब कुछ खुला होना चाहिए । हमें अपने स्व । अपनत्व के । हमारे पन के । सम्पूर्ण क्षेत्र के । प्रति जागृत होना चाहिये । जो कि हमारी वैयक्तिता और हमारी सामाजिकता की चेतना है । यह जागरण केवल तब हो सकता है । जब हमारा मन । वैयक्तिक और सामाजिक चेतना की परिधि के पार जाये । तभी कोई संभावना है कि - कोई अस्तित्व स्वतः प्रबुद्ध हो सके । और बाह्य उन्मुखी न हो ।
वास्तव में इस तरह की कोई चीज नहीं । जिसे कि हम कर्म कहते हैं ? कारण और प्रभाव । दो अलग या भिन्न चीजें नहीं हैं । आज का प्रभाव ही । कल का कारण है । ऐसा कोई अलग थलग पड़ा हुआ । कारण जैसा कुछ ? नहीं होता । जो प्रभाव पैदा करे । कारण और प्रभाव अंतः संबंधित हैं । कारण और प्रभाव के नियम । जैसी कोई चीज वास्तव में नहीं होती । जिसका मतलब यह भी है कि - ऐसी भी कोई चीज नहीं होती । जिसे कर्म कहें । हमारे लिये । कर्म का मतलब है । एक परिणाम । जिसके पीछे पहले कोई कारण रहा हो । पर प्रभाव और कारण के बीच के अन्तराल में जो होता है । वो है - समय । इस समय अन्तराल में अनन्त प्रकार के भारी बदलाव होते रहते हैं । जिससे हमें हर बार एक सा ही प्रभाव प्राप्त नहीं होता । और प्रभाव निरंतर नये कारण पैदा करते रहते हैं । जो कि मात्र प्रभाव का परिणाम ही नहीं होते । अतः यह ना कहें कि - मैं कर्म में विश्वास नहीं करता ? हमारा यह सब कहने का यह दृष्टिकोण नहीं है । कर्म का आशय है । बहुत ही सहज रूप से । एक ऐसा कृत्य । जिससे एक परिणाम भी जुड़ा हुआ है । और यह परिणाम पुनश्च । एक कारण की तरह भी है । यदि आम की गुठली को देखें । उसमें आम का वृक्ष होना निहित है । लेकिन मानव मन के साथ ऐसा ही कुछ नहीं है । मानव मन में अपने आप में रूपान्तरण और तत्काल समझ बूझ की सामर्थ्य । उसे किसी भी कारण से हमेशा अलग रख सकती है । जे. कृष्णमूर्ति

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