गुरुवार, अगस्त 19, 2010

वह सब विष व्याधियों को शान्त करने वाला हो गया ।


नागों का राजा वासुकि बलासुर दैत्य के पित्त को लेकर अत्यन्त वेग से देवलोक जा रहा था । उसी समयपक्षीराज गरुण ने सर्पदेव वासुकि पर प्रहार करने की कोशिश की । तब भयभीत होकर वासुकि ने उस
रत्नबीज रूपी पित्त को तुरुष्क देश की पर्वत की उपत्यका में छोड दिया । तव वह पर्वत के जल प्रपात के साथ बहता हुआ महालक्ष्मी के समीप स्थित श्रेष्ठ भवन अर्थात समुद्र को प्राप्त करके उसकी तटवर्ती भूमि के समीप मरकत मणि यानी पन्ना का खजाना बन गया । वासुकि ने जिस समय पित्त को गिराया था । उसी समय गरुण ने उस पित्त का कुछ अंश ग्रहण ( पान ) कर लिया । जिससे गरुण मूर्क्षित हो गये । और फ़िर उन्होंने दोनों नाक के छेदों से पित्त को बाहर निकाल दिया । उस स्थान पर प्राप्त होने वाली मणि तोते के गले जैसे रंग । शिरीष पुष्प । जुगनू की चमक । हरी घास का क्षेत्र । शैवाल । श्वेत कमल । नयी उगी घास । के समान कल्याणकारी होती है । वह देश सामान्य लोगों के लिये दुर्लभ था । मगर बेहद गुणयुक्त था । उस देश में जो कुछ भी उत्पन्न होता था । वह सब विष व्याधियों को शान्त करने वाला हो गया । सभी मन्त्रों और औषधियों से जिस नाग के महाविष के उपचार में सफ़लता प्राप्त नहीं हो सकती थी । उस विष का प्रभाव वहां पर उत्पन्न वस्तुओं से शान्त किया जा सकता है । वहां जो पन्ना उत्पन्न होता है । वह अन्य जगहों से उत्तम है । अत्यन्त हरित वर्ण वाली । कोमल कान्ति वाली । जटिल । मध्य भाग में सोने के चूरे के समान भरी हुयी दिखाई देती है । जो सूर्य की किरणो के स्पर्श से अपनी छटा द्वारा सभी स्थान आलोकित करती है । हरे रंग को छोडकर उसके अलावा जिसके मध्य भाग में एक समुज्जवल कान्ति नजर आती है । वह मरकत मणि यानी पन्ना बेहद गुण युक्त होता है । जो पन्ना कठोर । मलिन । रूखे । कडे पत्थर के समान । खुरदुरे । शिलाजीत के समान । दग्ध होता है । वह गुण रहित होता है । जिस प्रकार कांच में लघुता होती है । उसी प्रकार उसकी लघुता के द्वारा ही इसमें अवस्थित विजातीय भावना को पहचाना जा सकता है ।
जो हीरे मोती विजातीय होते हैं । यदि वे किसी रत्न औषधि विशेष के लेप से रहित हैं । तो उनकी प्रभा ऊपर की ओर चलती है । कभी कभी ऋजुता के कारण किन्ही मणियों ( हीन ) में ऐसी ऊपर जाने वाली प्रभा दीख सकती है । पर तिरछी निगाह से देखने पर वह प्रभा फ़िर नजर नहीं आती ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

तब भय के कारण सूर्य ने वह रक्त लंका की एक श्रेष्ठ नदी के जल में गिरा दिया ।


जब सूर्य बलासुर दैत्य के रत्नबीज रूप शरीर के रक्त को लेकर आकाश मार्ग से देवलोक जा रहे थे ।उसी समय देवताओं पर कई बार विजय पा लेने के अहंकार से भरे हुये रावण ने सूर्य का रास्ता एक शत्रु के समानरोक लिया । तब भय के कारण सूर्य ने वह रक्त लंका की एक श्रेष्ठ नदी के जल में गिरा दिया । जिसके दोनों तटों पर सुपारी के सुन्दर वृक्षों की पंक्तियां थी । गंगा के समान पवित्र और उत्तम फ़ल देने में सक्षम इस नदीका नाम रावणगंगा के नाम से प्रसिद्ध हो गया । रत्नबीज रूपी रक्त के गिरने से उस नदी के तट पर उसी समय से रात में रत्न राशियां स्वयं आकर एकत्र होने लगी । इससे नदी का अंतर भाग और बाह्य भाग अनोखी प्रभा से दमकने लगा । उसके जल में उत्पन्न पद्मराग रत्न । सौगन्धिक या श्वेतमाल । कुरुविन्दज तथास्फ़टिक रत्नों के प्रधान गुणों को धारण करते हैं । उनका स्वरूप बन्धूक पुष्प । गुज्जा फ़ल । वीर बहूटी कीट ।जवाकुसुम । तथा कुंकुम के रंग का होता हई । कुछ पद्मराग दाडिम और पलाश के फ़ूल जैसे रंग की आभालिये होते हैं । वर्णाधिक्य । गुरुता । चिकनापन । समता । निर्मलता । पारदर्शिता । तेजस्विता । महत्ता येउत्तम मणि के गुण होते हैं । इसके विपरीत जिन मणियों में करकराहट । छिद्र । मल । प्रभाहीनता । परुषता तथा रंगहीनता होती है । वे सभी उस के जातीय गुण होने पर भी अर्थहीन ही होते हैं । यदि अग्यानतावश कोई मनुष्य ऐसी दोषयुक्त मणि पहनता है । तो उसके कुप्रभाव से उत्पन्न शोक चिंता रोग मृत्यु तथा धन नाश जैसी आपदायें उसको घेर लेती हैं । जो पद्मराग गुज्जा के रंग का होता है । बहेडा के समान मध्य में पूर्णता से युक्त और गोलाकार होता है । अत्यन्त घिसने से कान्तिविहीन हो जाता है । हाथ की उं गलियों से जिसके पार्श्वभाग काले हो जाते हैं । हाथ में लेकर बार बार ऊपर की ओर उछालने पर भी जो मणि प्रत्येक बार एक ही रंग को धारण करती है । वह सभी गुणों से युक्त होती है । इसकी पहचान यह है कि वज्र यानी हीरा या कुरुविन्दक रत्न को छोडकर अन्य किसी भी रत्न के द्वारा पद्मराग और इन्द्रनीलमणि में चिह्न विशेष टंकित नहीं किया जा सकता । गुणयुक्त मणि के साथ गुण रहित मणि को धारण नहीं करना चाहिये । शत्रुओं के बीच निवास करने तथा प्रमाद वृत्ति में आसक्त रहने पर भी विशुद्ध और महागुणसम्पन्न पद्मराग मणि के स्वामी को आपदायें स्पर्श तक नहीं कर सकती ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

महाराज जी के नवीनतम चित्र




तू अजर अनामी वीर । भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता ।अद्वै वैराग कठिन है भाई । अटके मुनिवर जोगी । अक्षर को ही सत्य बताबें । वे हैं मुक्त वियोगी । अक्षरतीत शबद एक बांका । अजपा हू से है जो नाका । ऊर्ध्व में रहे । अधर में आवे । जो जब जाहिर होई । जाहि लखे जो जोगी । फ़ेर जन्म नहीं होई । जैसा आत्मग्यान का सर्वोच्च बोध मुझे कराने वाले पूज्य श्री महाराज जी कुछ दिन पहले हमारे अति आग्रह पर आगरा आये । तब उनके नवीनतम चित्र लिये । जो महाराज जी के भक्तों । शिष्यों की खातिर एक साथ प्रकाशित कर रहा हूं । महाराज जी का फ़ोन नम्बर 0 96 39 89 29 34 है । जिस पर सत्य की तलाश में भटकते लोग अपनी जिग्यासा का समाधान कर सकते हैं । जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

नाडी का रहस्य.??.

स्वर के उदय होने से कार्य के शुभ और अशुभ होने का ग्यान होता है । हमारे शरीर में बहुत प्रकार की नाडियां फ़ैली हुयीं हैं । नाभि के नीचे । कन्दस्थान यानी मूलाधार है । वहीं से सब नाडियां निकलकरशरीर मे फ़ैलती हैं । वहत्तर हजार नाडियां शरीर में चक्राकार अवस्था में रहती हैं । इन नाडियों में वामा यानी बांयी । दक्षिणा यानी दाहिनी । मध्यमा याने बीच में । ये तीन श्रेष्ठ नाडियां हैं । इन्ही को इडा । पिंगला । सुष्मणा । कहा जाता है । इनमें बांयी चन्द्रमा के समान । दांयी सूर्य के समान । तथा मध्यमा अग्नि के समान फ़लदायिनी और कालरूपिणी होती है । बांयी नाडी अमृत रूपा है । यह जगत को आप्यायित करती है । इसके विपरीत दांयी रौदे है और जगत का शोषण करती है । जब शरीर में इन दोनों का एक साथ समान प्रवाह होता है । उस समय मृत्यु बहुत करीब होती है । यात्रा प्रस्थान के लिये बांयी नाडी प्रवेश के अवसर पर दांयी शुभ है । बांये स्वर के समय में सौम्य और शुभ कार्य करने चाहिये । जो जगत के लिये शुभ हों । दांया सुर चलने के समय । तेजस्वी और क्रूर कार्य करने चाहिये । यात्रा में । अन्य सभी कार्यों में । विष दूर करने में बांयी नाडी चलने का समय उत्तम है । भोजन । मैथुन । युद्ध का आरम्भ ।
उच्चाटन आदि अभिचार कर्म में दांयी नाडी उत्तम होती है । शुभ कार्य सम्पादन में । यात्रा में । विष उपचार
में । शान्ति और मुक्ति की सिद्धि हेतु बांयी नाडी उत्तम है । दोनों स्वरों के चलने पर कोई कार्य नहीं करना
चाहिये यह समय विष के समान होता है । सौम्य । शुभ कार्यं में । लाभ के कार्यों में । विजय कार्य में । जीवन कार्य में । आना या जाना हो । तब बांयी नाडी उत्तम है । घात । प्रतिघात । युद्ध । क्रूर कार्य । भोजन । स्त्री से सम्भोग । प्रवेश ( किसी नयी जगह ) तथा तुच्छ कार्य हेतु दांया स्वर उत्तम है । शुभ अशुभ । लाभ हानि । जय पराजय । जीवन मृत्यु । के विषय में प्रश्न करने पर । प्रश्नकर्ता की मध्यमा नाडी चल रही हो तो कार्य सफ़ल नही होता । अन्य दोनों में से कोई चल रही हो तो सफ़लता निश्चित है । यहां नाडी । स्वर । सुर से आशय मनुष्य़ की नाक से प्रवाहित होने वाली स्वांस वायु से है । स्वर बिग्यान का अच्छा ग्यान होने से इसको बदला जा सकता है । सम किया जा सकता है । उदाहरण के लिये भयंकर गर्मी की स्थित में आप चन्द्र नाडी का उपयोग जानते हों । तो आप को भरी गर्मी में सर्दी का अहसास होगा । इसका सबसे बडा सबूत है । कई बार कुछ लोगों को सडी गर्मी में बुखार आने पर बेहद सर्दी लगती है । इसका यही रहस्य है । तब वह क्रिया सिस्टम बिगडने से होती है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
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सूर्य के रथ का रहस्य..

सूर्य के रथ का विस्तार नौ हजार योजन है । एक योजन में बारह किलोमीटर होते है । उसका जुआ तथा रथ के बीच का भाग अठारह हजार योजन है । उसकी धुरी एक करोड सत्तावन लाख योजन लम्बी है । इसमें चक्र लगा हुआ है । पूर्वाह्य । मध्याह्य । अपराह्यरूप तीन नाभि है । परिवत्सर आदि पांच अरे हैं । छह ऋतुयें । छह नेमियां हैं । अक्षयस्वरूप संवतसर युक्त उस चक्र में पूरा कालचक्र सन्निहित है । सूर्य के रथ की दूसरी धुरी चालीस हजार योजन लम्बी है । रथ के पहियों के अक्ष साढे पांच हजार योजन लम्बे हैं ।
दोनों अक्षों के परिमाण के समान जुये के दोनों अर्द्धों की लम्बाई है । सबसे छोटा अक्ष जुये के अर्द्ध भाग वाला है । जो रथ के ध्रुवाधार पर अवस्थित है । रथ के दूसरे अक्ष में चक्र लगा हुआ है । जो मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है । गायत्री । बृहती । उष्णिक । जगती । त्रिष्टुपि । अनुष्टुप । पंक्ति ये सात छ्न्द । सूर्य के सात घोडे हैं । चैत्र मास में सूर्य के रथ पर । धाता नामक आदित्य । कृतुस्थला नाम की अप्सरा । पुलस्त्य ऋषि । वासुकि नाग । रथकृत ग्रामणी । हेति नाम का राक्षस । और तुम्बुरु गन्धर्व होता है ।
वैशाख में । अर्यमा आदित्य । पुलह ऋषि । पुज्जिकस्थला अप्सरा । रथौजा यक्ष । प्रहेति राक्षस । कच्छनीर
सर्प । तथा नारद गन्धर्व होता है । जेठ मास में । मित्र आदित्य । अत्रि ऋषि । तक्षक नाग । पौरुषेय राक्षस । मेनका अप्सरा । हाहा नामक गन्धर्व । रथस्वन यक्ष रहता है । आषाढ महीने में इस रथ पर । वरुण नाम
का आदित्य । वसिष्ठ ऋषि । रम्भा तथा सहजन्या अप्सरा । हूहू गन्धर्व । रथचित्र यक्ष । राक्षस गुरु शुक्र की
ड्यूटी रहती है । सावन महीने में इस रथ पर । इन्द्र आदित्य । विश्वावसु गन्धर्व । स्रोत यक्ष । एलापत्र सर्प । अंगिरा ऋषि । प्रम्लोचा अप्सरा । सर्प नाम का राक्षस रहता है । भादों माह में । विवस्वान आदित्य । उग्रसेन गन्धर्व । भृगु ऋषि । आपूरण यक्ष । अनुम्लोचा अप्सरा । शंखपाल सर्प । तथा व्याघ्र राक्षस रहता है । आश्विन यानी क्वार मास में । सूर्य रथ पर । पूषा आदित्य । सुरुचि गन्धर्व । धाता और गौतम ऋषि । धनज्जय नाग । सुषेण और घृताची अप्सरा । रहती है । कार्तिक महीने में । पर्जन्य आदित्य । विश्वावसु गन्धर्व । भरद्वाज ऋषि । एरावत सर्प । विश्वाची अप्सरा । सेनजित यक्ष । आप नामक राक्षस की ड्यूटी रहती है । मार्गशीर्ष यानी अगहन महीने में । अंशु आदित्य । कश्यप ऋषि । तार्क्ष्य महापद्म नाग । उर्वशी अप्सरा । चित्रसेन गन्धर्व । विधुत राक्षस की ड्यूटी रहती है । पौष माह में भर्ग आदित्य । क्रतु ऋषि । उर्णायु गन्धर्व । स्फ़ूर्ज राक्षस । कर्कोटक नाग । अरिष्टनेमि यक्ष । पूर्वचित्ति अप्सरा । रथ में रहते हैं ।
माघ मास में त्वष्टा आदित्य । जमदग्नि ऋषि । कम्बल सर्प । तिलोत्तमा अप्सरा । ब्रह्मपेत राक्षस । ऋतजित यक्ष । धृतराष्ट्र गन्धर्व । रथ पर रहते हैं । फ़ागुन महीने में विष्णु आदित्य । अश्वतर सर्प । रम्भा अप्सरा । सूर्यवर्चा गन्धर्व । सत्यजित यक्ष । विश्वामित्र ऋषि । यग्यापेत राक्षस रहता है ।
विष्णु की शक्ति से तेजोमय बने मुनिगण । सूर्यमण्डल के सामने उपस्थित रहकर स्तुति करते हैं । गन्धर्व यशगान करते हैं । अप्सराएं नाचती हैं । राक्षस रथ के पीछे पीछे चलते है । सर्प सूर्य रथ को वहन करते हैं ।
यक्ष बागडोर सम्हालते हैं । बालखिल्य नाम के ऋषि उस रथ को सब ओर से घेरकर स्थित रहते हैं । चन्द्रमा का रथ तीन पहियों वाला है । इसके दस घोडे कुन्द फ़ूल के समान सफ़ेद रंग के हैं । जो रथ के जुए में दांये बांये पांच पांच की संख्या में जुते हुये हैं ।
चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ । जल तथा अग्नि से मिश्रित द्रव्य का बना है । उसमे वायु के समान वेग से चलने वाले भूरे रंग के आठ घोडे है । शुक्र का रथ । सैन्यबल से युक्त । ऊंचे शिखर वाला । प्रथ्वी के घोडों से जुता हुआ । तरकश तथा ऊंची पताका से सुसज्जित है ।
भूमिपुत्र मंगल का रथ । तपाये गये सोने के समान रंग वाला है । उसमें आठ घोडे हैं । जो लाल रंग के हैं । और अग्नि से प्रादुर्भूत हैं । ब्रहस्पति का रथ सोने का है । इसमें आठ घोडे हैं जो पीलापन लिये हुये सफ़ेद रंग के हैं । ब्रहस्पति एक राशि मे एक वर्ष रहते हैं । शनि का रथ । आकाश में उत्पन्न होने वाले चितकबरे रंग के घोडो वाला है । ये रथ धीरे धीरे चलता है । इसीलिये शनि का मन्दगामी नाम भी है । स्वर्भानु यानी राहु के रथ में आठ घोडे हैं । जो काले रंग के हैं । राहु का रथ पीले से रंग का है । इसके घोडे एक बार रथ में जोत देने पर निरन्तर चलते रहते हैं । इसी प्रकार केतु के रथ में भी आठ घोडे हैं । उनका रंग धुंए के समान है । इस प्रकार सूर्य । चन्द्र । और अन्य ग्रहो से युक्त । दीप । नदी । पर्वत । समुद्र आदि से समन्वित समस्त भुवन मण्डल भगवान का विराट शरीर है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । " " सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । " विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु
कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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