सोमवार, नवंबर 21, 2011

इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है

प्यारे ओशो ! जब तन्का द्वारा बुद्ध की काष्ठ मूर्ति को जलाए जाने की घटना के बारे में तेन्जिक से पूछा गया । तो उसने उत्तर दिया - जब शीत अधिक होती है । तो हम चूल्हे की आग के चारों ओर इकट्ठे हो जाते हैं । क्या वह गलत था । अथवा नहीं ?  भिक्षु ने जोर देकर पूछा
तेन्जीकू ने कहा - जब गर्मी लगती है । तो हम घाटी के बांसवन में जाकर बैठ जाते हैं । मूर्ति के जला देने के दूसरे दिन । तन्का तेनिन । झेन सदगुरु नान यो से भेंट करने गया । जो कभी झेन सदगुरुओं के सम्राट ईनो का शिष्य रहा था । जब तन्का । झाझेन ध्यान में बैठने के लिए । अपने कंबल की तह खोलने लगा । तो नान-यो ने कहा - उसके खोलने की कोई आवश्यकता नहीं है । तन्का कुछ कदम पीछे हटा ।
नान-यो ने कहा - यह बिलकुल ठीक है । इस पर तन्का कुछ कदम आगे बढ़ा । नान-यो ने कहा - यह ठीक नहीं है । तन्का ने नान-यो के चारों ओर घूम कर एक परिक्रमा की । और वहां से चला गया । नान-यो ने टिप्पणी करते हुए कहा - पुराने सुनहरे दिन अब विदा हो गए हैं । और अब लोग कितने अधिक आलसी हो गए हैं । आज से 30 वर्ष बाद । इस व्यक्ति को रोक पाना बहुत कठिन होगा ।  मित्रो ! झेन मैनिफेस्टो अर्थात झेन के उदघोष के लिए । आज का समय बिलकुल परिपक्व है । पश्चिम के बुद्धिजीवी अब झेन से भलीभांति परिचित हो चुके हैं । वे लोग झेन से प्रेम करने लगे हैं । लेकिन वे अभी भी झेन तक पहुंचने का प्रयास बुद्धि से कर रहे हैं । वे अभी तक यह नहीं समझ सके हैं कि झेन का बुद्धि के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है । उसका एक बहुत बड़ा कार्य है । तुम्हें बुद्धि के कारागृह से मुक्त करना । यह कोई बुद्धिगत दर्शन शास्त्र नहीं है । यह दर्शन शास्त्र है ही नहीं । और न यह कोई धर्म ही है । क्योंकि इसके पास न तो काल्पनिक कथाएं हैं । न झूठे व्याख्यान हैं । और न उसके पास देने के लिए कोई झूठे आश्वासन हैं । यह तो एक सिंह गर्जना है । और सबसे बड़ी बात तो यह है कि झेन इस संसार में स्वयं से ही मुक्त होने का उदघोष लेकर आया है ।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
ॐ वह पूर्ण है । और यह भी पूर्ण है । क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है । तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है । ॐ शांति, शांति, शांति ।
यह महा वाक्य कई अर्थों में अनूठा है । एक तो इस अर्थ में कि ईशावास्य उपनिषद इस महावाक्य पर शुरू भी होता है । और पूरा भी । जो भी कहा जाने वाला है । जो भी कहा जा सकता है । वह इस सूत्र में पूरा आ गया है । जो समझ सकते हैं । उनके लिए ईशावास्य आगे पढ़ने की कोई भी जरूरत नहीं है । जो नहीं समझ सकते हैं । शेष पुस्तक उनके लिए ही कही गई है ।
इसीलिए साधारणतः ॐ शांतिः शांतिः शांतिः का पाठ । जो कि पुस्तक के अंत में होता है । इस पहले वचन के ही अंत में है । जो जानते हैं । उनके हिसाब से बात पूरी हो गई है । जो नहीं जानते हैं । उनके लिए सिर्फ शुरू होती है ।
इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है कि पूरब और पश्चिम के सोचने के ढंग का भेद इस महा वाक्य से स्पष्ट होता है । दो तरह के तर्क । दो तरह की लाजिक सिस्टम्स विकसित हुई हैं दुनिया में । एक यूनान में । एक भारत में ।
यूनान में जो तर्क की पद्धति विकसित हुई । उससे पश्चिम के सारे विज्ञान का जन्म हुआ । और भारत में जो विचार की पद्धति विकसित हुई । उससे धर्म का जन्म हुआ । दोनों में कुछ बुनियादी भेद हैं । और सबसे पहला भेद यह है कि पश्चिम में । यूनान ने जो तर्क की पद्धति विकसित की । उसकी समझ है कि निष्कर्ष, कनक्लूजन हमेशा अंत में मिलता है । साधारणतः ठीक मालूम होगी बात । हम खोजेंगे सत्य को । खोज पहले होगी । विधि पहले होगी । प्रक्रिया पहले होगी । निष्कर्ष तो अंत में हाथ आएगा । इसलिए यूनानी चिंतन पहले सोचेगा । खोजेगा । अंत में निष्कर्ष देगा ।
भारत ठीक उलटा सोचता है । भारत कहता है । जिसे हम खोजने जा रहे हैं । वह सदा से मौजूद है । वह हमारी खोज के बाद में प्रगट नहीं होता । हमारे खोज के पहले भी मौजूद है । जिस सत्य का उदघाटन होगा । वह सत्य । हम नहीं थे । तब भी था । हमने जब नहीं खोजा था । तब भी था । हम जब नहीं जानते थे । तब भी उतना ही था । जितना जब हम जान लेंगे । तब होगा । खोज से सत्य सिर्फ हमारे अनुभव में प्रगट होता है । सत्य निर्मित नहीं होता । सत्य हमसे पहले मौजूद है । इसलिए भारतीय तर्कणा पहले निष्कर्ष को बोल देती है । फिर प्रक्रिया की बात करती है । दि कनक्लूजन फर्स्ट । देन दि मैथडलाजी एंड दि प्रोसेस । पहले निष्कर्ष । फिर प्रक्रिया । यूनान में पहले प्रक्रिया । फिर खोज । फिर निष्कर्ष । 

india के लोचपोच आदमियों में यह भी एक कारण है

सब तीर्थ बहुत ख्‍याल से बनाये गए है । अब जैसे कि मिश्र में पिरामिड है । वे मिश्र में पुरानी खो गई सभ्‍यता के तीर्थ है । और 1 बड़ी मजे की बात है कि इन पिरामिड के अंदर । क्‍योंकि पिरामिड जब बने तब । वैज्ञानिको का खयाल है । उस काल में इलेक्ट्रिसिटी हो नहीं सकती ।
आदमी के पास बिजली नहीं हो सकती । बिजली का आविष्‍कार उस वक्‍त कहां । कोई 10 हजार वर्ष पुराना पिरामिड है । कई 20 हजार वर्ष पुराना पिरामिड है । तब बिजली का तो कोई उपाय नहीं था । और इनके अंदर इतना अँधेरा कि उस अंधेरे में जाने का कोई उपाय नहीं है । अनुमान यह लगाया जा सकता है कि लोग मशाल ले जाते हों । या दीये ले जाते हो । लेकिन धुएँ का 1 भी निशान नहीं है । इतने पिरामिड में कहीं । इसलिए बड़ी मुश्‍किल है । 1 छोटा सा दीया घर में जलाएगें । तो पता चल जाता है । अगर लोग मशालें भीतर ले गए हों । तो इन पत्‍थरों पर कहीं न कहीं न कहीं धुएँ के निशान तो होने चाहिए ।
रास्‍ते इतने लंबे । इतने मोड़ वाले है । और गहन अंधकार है । तो 2 ही उपाय हैं । या तो हम मानें कि बिजली रही होगी । लेकिन बिजली की किसी तरह की फ़िटिंग का कहीं कोई निशान नहीं है । बिजली पहुंचाने का कुछ तो इंतजाम होना चाहिए । दूसरा आदमी सोच सकता है । तेल । घी के दीयों या मशालों का । पर उन सबसे किसी न किसी तरह के निशान पड़ते है । जो कहीं भी नहीं है । फिर उनके भीतर आदमी कैसे जाता रहा है । कोई कहेगा । नहीं जाता होगा । तो इतने रास्‍ते बनाने की कोई जरूरत नहीं है । पर सीढ़ियाँ है । रास्‍ते है । द्वार है । दरवाजे है । अंदर चलने फिरने का बड़ा इंतजाम है । 1-1 पिरामिड में बहुत से लोग प्रवेश कर सकते है । बैठने के स्‍थान है अंदर । वह सब किस लिये होंगे । यह पहेली बनी रह गई है । और साफ नहीं हो पाएगी कभी भी । क्‍योंकि पिरामिड की समझ नहीं है साफ । कि ये किस लिये बनाए गए है ? लोग समझते है । किसी सम्राट का फितूर होगा । कुछ और होगा ।
लेकिन ये तीर्थ है । और इन पिरामिड में प्रवेश का सूत्र ही यही है कि जब कोई अंतर अग्‍नि पर ठीक से प्रयोग करता है । तो उसका शरीर आभा फेंकने लगता है । और तब वह अंधेरे में प्रवेश कर सकता है । तो न तो यहां बिजली उपयोग की गई है ।  न यहां कभी दीया उपयोग किया गया है । न मशाल का उपयोग किया गया है । सिर्फ शरीर की दीप्‍ति उपयोग कि गई थी । लेकिन वह शरीर की दीप्ति अग्‍नि के विशेष प्रयोग से ही होती है । इनमें प्रवेश ही वही करेगा । जो इस अंधकार में मजे से चल सके । वह उसकी कसौटी भी है । परीक्षा भी है । और उसको प्रवेश का हक भी है । वह हकदार भी है ।
जब पहली बार 1905 या 10 में 1-1 पिरामिड खोजा जो रहा था । तो जो वैज्ञानिक उस पर काम कर रहा था । उसका सहयोगी अचानक खो गया । बहुत तलाश की गई । कुछ पता न चला । यहीं डर हुआ कि वह किसी गलियारे में अंदर है । बहुत प्रकाश और सर्च लाईट ले जाकर खोजा । वह कोई 24 घंटे खोया रहा  । 24 घंटे बाद । कोई रात 2 बजे वह भागा हुआ आया । करीब पागल हालत में । उसने कहा । मैं टटोलकर अंदर जा रहा था कि कहीं मुझे दरवाजा मालूम पड़ा । मैं अंदर गया । और फिर ऐसा लगा कि पीछे कोई चीज बंद हो गई । मैंने लौटकर देखा । तो दरवाजा तो बंद हो चुका था । जब मैं आया । तब खुला था । पर दरवाजा भी नहीं था कोई । सिर्फ खुला था । फिर इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था कि मैं आगे चला जाऊँ । और मैं ऐसी अदभुत चीजें देखकर लौटा हूं । जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्‍किल है ।
वह इतनी देर गुम रहा । वह पक्‍का है । वह इतना परेशान लौटा है । पक्‍का है । लेकिन जो बातें वह कह रहा है । वह भरोसे की नहीं है कि ऐसी चीजें होंगी । बहुत खोजबीन की गई । उस दरवाजे की । लेकिन दरवाजा दुबारा नहीं मिल सका । न तो वह यह बता पाया कि कहां से प्रवेश किया । न यह बता पाया कि वह कहां से निकला । तो समझा गया कि या तो वह बेहोश हो गया । या उसने कहीं सपना देखा । या वह कहीं सो गया । और कुछ समझने का चारा नहीं था ।
लेकिन जो चीजें उसने कही थी । वह सब नोट कर ली गयीं । उस साइकिक अवस्‍था में । स्वपनवत अवस्‍था में । जो जो उसने वहां देखीं । फिर खुदाई में कुछ पुस्‍तकें मिलीं । जिनमें उन चीजों का वर्णन भी मिला । तब बहुत मुसीबत हो गई । उस वर्णन से लगा कि वह चीजें किसी कमरे में वहां बंद है । लेकिन उस कमरे का द्वार किसी विशेष मनोदशा में खुलता है । अब इस बात की संभावना है कि वह एक सांयोगिक घटना थी कि इसकी मनोदशा वैसी रही हो । क्‍योंकि इसे तो कुछ पता नहीं था । लेकिन द्वार खुला अवश्‍य । तो जिन गुप्‍त तीर्थों की मैं बात कर रहा हूं । उनके द्वार है । उन तक पहुंचने की व्‍यवस्‍थाएं है । लेकिन उस सबके आंतरिक सूत्र है । इन तीर्थों में ऐसा सारा इंतजाम है कि जिनका उपयोग करके चेतना गतिमान हो सके । जैसे कि पिरामिड के सारे कमरे । उनका आयतन 1 हिसाब में है । कभी आपने ख्‍याल किया । कहीं छप्‍पर बहुत नीचा हो । लेकिन आपके सिर को नहीं छू रहा हो । और यही छप्‍पर थोड़ा सरक कर नीचे आने लगे । हमको दबाएगा नहीं । हम से अभी 2 फिट ऊँचा है । लेकिन हमें आभास होगा कि हमारे भीतर कोई चीज दबने लगी ।
जब नीचे छप्‍पर में आप प्रवेश करते है । तो आपके भीतर कोई चीज सिकुड़ती है । और आप जब बड़े छप्‍पर के नीचे प्रवेश करते है । तो आपके भीतर कोई चीज फैलती है । कमरे का आयतन इस ढंग से निर्मित किया जा सकता है । ठीक उतना किया जा सकता है । जितने में आपको ध्यान आसान हो जाए । सरलतम हो जाए । ध्‍यान आपको । उतना आयतन निर्मित किया जा सकता है । उतना आयतन खोज लिया गया था । उस आयतन का उपयोग किया जा सकता है । आपके भी सिकुडने ओर फैलने के लिए । उस कमरे के भीतर रंग । उस कमरे के भीतर गंध । उस कमरे के भीतर ध्‍वनि । इस सबका इंतजाम किया जा सकता है । जो आपके ध्‍यान के लिए सहयोगी हो जाए ।
सब तीर्थों का अपना संगीत था । सच तो यह है कि सब संगीत । तीर्थों में पैदा हुए । और सब संगीत साधकों ने पैदा किए । सब संगीत । किसी दिन मंदिर में पैदा हुए । सब नृत्‍य । किसी दिन मंदिर में पैदा हुए । सब सुगंध । पहली दफा मंदिर में उपयोग की गई । 1 दफा जब यह बात पता चल गई कि संगीत के माध्‍यम से कोई व्‍यक्‍ति परमात्‍मा की तरफ जा सकता है । तो संगीत के माध्यम से परमात्‍मा के विपरीत भी जा सकता है । यह भी ख्‍याल में आ गया । और तब बाद में दूसरे संगीत खोजें गए । किसी गंध से । जबकि परमात्‍मा की तरफ जाया जा सकता है । तो विपरीत किसी गंध से । कामुकता की तरफ जाया जा सकता है । गंधें भी खोज ली गई । किसी विशेष आयतन में ध्‍यानस्‍थ हो सकता है । तो किसी विशेष आयतन में ध्‍यान से रोका जा सकता है । वह भी खोज लिया गया ।
जैसे अभी चीन में ब्रेन वाश के लिए जहां कैदियों को खड़ा करते है । उस कोठरी का एक विशेष आयतन है । उस विशेष आयतन में ही खड़ा करते है । और उन्‍होंने अनुभव किया कि उस आयतन में कभी बेशी करने से ब्रेन वाश करने में मुसीबत पड़ती है । 1 निश्चित आयतन । हजारों प्रयोग करके तय हो गया कि इतनी ऊंची । इतनी चौड़ी । इतनी आयतन की कोठरी में कैदियों को खड़ा कर दो । तो कितनी देर में डिटीरीओरेशन हो जाएगा । कितनी देर में खो देगा । वह अपने दिमाग को । फिर उसमें 1 विशेष ध्‍वनि भी पैदा करो । तो और जल्‍दी खो देगा । खास जगह उसके मस्‍तिष्‍क पर हेमरिंग करो । तो और जल्दी खो देगा ।
वे कुछ नहीं करते । 1 मटका ऊपर रख देते है । और 1-1 बूंद पानी उसकी खोपड़ी पर टपकता रहता है । उसकी अपनी लय है । रिदिम है । बस । टप टप वह पानी सर पर टपकता रहता है । 24 घंटे वह आदमी खड़ा है । बैठ भी नहीं सकता । हिल भी नहीं सकता । आयतन इतना है । कोठरी का लेट भी नहीं सकता । वह खड़ा है । मस्‍तिष्‍क में पानी टप टप गिरता जा रहा है । आधा घंटा पूरे होते होते 30 मिनट पूरे होते होते सिवाय टप टप की आवाज के कुछ नहीं बचता । आवाज इतनी जोर से मालूम होने लगेगी । जैसे पहाड़ गिर रहा है । अकेली आवाज रह जाएगी । उस आयतन में । और 24 घंटे में वह आपके दिमाग को अस्‍त व्‍यस्‍त कर देगी । 24 घंटे के बाद जब आपको बाहर निकालेंगे । तो आप वहीं आदमी नहीं होगें । उन्‍होंने आपको सब तरह से तोड़ दिया है ।
ये सारे के सारे प्रयोग । पहली दफा तीर्थों में खोजें गए । मंदिरों में खोजें गए । जहां से आदमी को सहायता पहुँचाई जा सके । मंदिर के घंटे है । मंदिर की ध्वनियाँ है । धूप है । गंध है । फूल है । सब नियोजित था । और 1 सातत्य रखने की कोशिश की गई । उसकी कंटीन्युटी न टूटे । बीच में कहीं कोई व्‍यवधान न पड़े । अहर्निश धारा । उसकी जारी रखी जाती रही । जैसे सुबह इतने वक्‍त आरती होगी । इतनी देर चलेगी । इस मंत्र के साथ होगी । दोपहर आरती होगी । इतनी देर चलेगी । इस मंत्र के साथ होगी । सांझ आरती होगी । इतनी देर चलेगी । यह क्रम ध्‍वनियों का उस कोठरी में गूंजता रहेगा । पहला क्रम टूटे । उसके पहले दूसरा रीप्लेस हो जाए  । यह हजारों साल तक चलेगा ।
जैसा मैंने कहा । पानी को अगर लाख दफा पानी बनाया जाए । भाप बनाकर । तो जैसे उसकी क्‍वालिटी बदलती है । अल्‍केमी के हिसाब से उसी प्रकार 1 ध्‍वनि को लाखों दफा पैदा किया जाए । एक कमरे में तो उस कमरे की पूरी तरंग । पूरी गुणवत्‍ता बदल जाती है । उसकी पूरी क्वालिटी बदल जाती है । उसके बीच व्‍यक्‍ति को खड़ा कर देना । उसके पास खड़ा कर देना । उसके रूपांतरित होने के लिए । आसानी जुटा देगा । और चूंकि हमारा सारा का सारा व्‍यक्‍तित्व को बदलने लगता है । और आदमी इतना बाहर है कि पहले बाहर से ही फर्क उसको आसान पड़ते है । भीतर के फर्क तो पहले बहुत कठिन पड़ते है । दूसरा उपाय था । पदार्थ के द्वारा सारी ऐसी व्‍यवस्‍था दे देना कि आपके शरीर को जो जो सहयोगी हो । वह हो जाए ।
जितने दूर का नाता होगा । उतना ही बच्‍चा सुंदर होगा । स्‍वस्‍थ होगा । बलशाली होगा । मेधावी होगा । इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई बहन का विवाह न हो । दूर संबंध खोजें जाते है । जिलों गोत्र का भी नाता न हो । 3-4-5 पीढ़ियों का भी नाता न हो । क्‍योंकि जितने दूर का नाता हो । उतना ही बच्‍चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा । उसमें दूरी होगी । तो उस दूरी के कारण ही व्‍यक्‍तित्‍व में गरिमा होती है ।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए । जापानी से करे । चीनी से करे । तिब्‍बती से करे । इरानी से करे । जर्मन से करे । भारतीय से न करे । क्‍योंकि जब दूर ही करनी है । जितनी दूर हो । उतना अच्‍छा ।
और अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात । पशु पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे है । लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है । क्‍योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है । अगर हमको अच्‍छी गाय की नस्‍ल पैदा करनी है । तो हम बाहर से वीर्य अणु बुलाते है । अंग्रेज सांड का वीर्य अणु बुलाते है । भारतीय गाय के लिए । और कभी नहीं सोचते कि गऊ माता के साथ क्‍या कर रहे हो तुम यह । गऊ माता और अंग्रेज पिता । शर्म नहीं आती । लाज संकोच नहीं । मगर उतने ही स्‍वस्‍थ बच्‍चे पैदा होंगे । उतनी ही अच्‍छी नस्‍ल होगी ।
इसलिए पशुओं की नसलें सुधरती जा रही है । खासकर पश्‍चिम में तो पशुओं की नसलें बहुत सधुर गई है । कल्‍पनातीत । 60-60 लीटर दूध देने वाली गायें । कभी दूनिया में नहीं थी । और उसका कुल कारण यह है कि दूर दूर के वीर्याणु को मिलाते जाते है । हर बार । आने वाले बच्‍चे और ज्‍यादा स्‍वास्‍थ और भी स्वारथ होते जाते है । कृतों की नसलों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी नहीं थे । दुनियां में । रूस में फलों में क्रांति हो गई हे । कयोंकि फलों के साथ भी यही प्रयोग कर रहे है । आज रूस के पास जैसे फल है । दुनिया में किसी के पास नहीं है । उनके फल बड़े है । ज्‍यादा रस भरे है । ज्‍यादा पौष्‍टिक है । और सारी तरकीब 1 है । जितनी ज्‍यादा दूरी हो ।
भारत की दीन हीनता में यह भी एक कारण है । india के लोचपोच आदमियों में यह भी एक कारण है । क्‍योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे । अब जैनों की कुल संख्‍या 30 लाख है । महावीर को मरे 2500 साल हो गए । अगर महावीर ने 30 जोड़ों को संन्‍यास दिया होता । तो 30 लाख की संख्‍या हो जाती । 30 जोड़े काफ़ी थे । तो अब जैनों का सारा संबंध जैनों से ही होगा । और जैनों में भी । श्‍वेतांबर का श्‍वेतांबर से । और दिगंबर का दिगंबर से । और सब श्‍वेतांबर से नहीं । तेरा पंथी का तेरा पंथी से । और स्‍थानक वासी का स्‍थानक वासी से । और छोटे छोटे टुकड़े है । संख्‍या हजारों में रह जाती है । और उन्हीं के भीतर गोलगोल घूमते रहते है लोग । छोटे छोटे तालाब है । और उन्‍हीं के भीतर लोग बच्‍चे पैदा करते रहते है । इससे कचरा पैदा होता है । सारी दुनिया में सबसे ज्‍यादा कचरा इस भारत में है । फिर तुम रोते हो कि यह अब कचरे का क्‍यों पैदा हो रहा है । तुम खुद इसके जिम्‍मेदार हो ।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे । और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं । कान्‍यकुब्‍ज ब्राह्मण कान्‍यकुब्‍ज से करेंगे । और देशस्‍थ देशस्‍थ से । और कोंकणस्‍थ कोंकणस्‍थ से । और स्‍वस्‍थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां हैं । मुझे तो अभी तक नहीं मिला । कोई भी । और असल में । स्‍वस्‍थ हो । उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए । स्‍वयं में स्‍थित हो । वही ब्राह्मण है ।
और यह जो भारत की दुर्गति है । उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातियां अपने अपने घेरे में जी रही हैं । यहीं बच्‍चे पैदा करना । कचड़  बचड़ । वही होती रहेगी । थोड़ा बहुत बचाव करेंगे । मगर कितना बचाव करोगे । जिससे भी शादी करोगे । 2-4-5 पीढ़ी पहले उससे तुम्‍हारे भाई बहन का संबंध रहा होगा । 2-4-5 पीढ़ी ज्‍यादा से ज्‍यादा कर सकते हो । इससे ज्‍यादा नहीं बचा सकते । जितना छोटा समाज होगा । उतना बचाव करना । कठिन हो जायेगा । जितना छोटा समाज होगा,। उतनी संतति में पतन होगा । थोड़ा मुक्‍त होओ । ब्राह्मण को विवाह करने दो जैन से । जैन को विवाह करने दो हरिजन से । हरिजन को विवाह करने दो मुसलमान से । मुसलमान को विवाह करने दो ईसाई से । तोड़ो ये सारी सीमाएं । निकलो एक बार इस कूप से । देखो फिर उँची संतति को ।

खाओ पीओ और मौज करो बस यही 1 मात्र धर्म है

मनुष्य का इतिहास 1 अत्यंत दुखद घटना रहा है । और इसके दुखद होने का कारण समझना । बहुत कठिन नहीं है । उसे खोजने के लिए तुम्हें । ज्यादा दूर जाना न पड़ेगा । वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है ।
मनुष्य के पूरे अतीत ने । मनुष्य में 1 विभाजन पैदा कर दिया है । हर आदमी के भीतर निरंतर 1 शीत युद्ध चल रहा है । यदि तुम्हें बेचैनी का अनुभव होता है । तो उसका कारण व्यक्तिगत नहीं है । तुम्हारी बीमारी सामाजिक है । और जिस चालाकी से भरी तरकीब का उपयोग किया गया है । वह है । तुम्हें दुश्मनों के 2 खेमों में बांटना । 1 भौतिकवादी 2 अध्यात्मवादी । 1 जोरबा  2 बुद्ध ।
वस्तुतः तुम बंटे हुए नहीं हो । वास्तविकता यह है कि तुम अखंड हो । 1 स्वर में । 1 लय में आबद्ध । लेकिन तुम्हारे मन में यह संस्कार गहरा बैठा है कि तुम 1 नहीं हो । अखंड नहीं हो । पूर्ण नहीं हो । तुम्हें अपने शरीर के खिलाफ लड़ना होगा । यदि आध्यात्मिक होना चाहते हो । तो तुम्हें अपने body को हर संभव तरीके से जीतना पड़ेगा । उसे हराना पड़ेगा । उसे सताना और नष्ट करना पड़ेगा ।
पूरी दुनिया में यह धारणा स्वीकृत रही है । विभिन्न धर्मों में । विभिन्न संस्कृतियों में । उसके रंग रूप । भिन्न भिन्न हो सकते हैं । किंतु आधारभूत सिद्धांत वही है । मनुष्य को विभाजित करो । उसमें संघर्ष पैदा करो । जिससे 1 हिस्सा श्रेष्ठ अनुभव करने लगे । पवित्र बन जाए । पुण्यात्मा बन जाये । और दूसरे हिस्से की पापी की तरह निंदा करना शुरू कर दे ।
मगर कठिनाई यह है कि तुम 1 हो । तुम्हें खंडित करने का कोई उपाय नहीं है । हर विभाजन तुम में दुख पैदा करने वाला है । विभाजन का अर्थ होगा कि तुम्हारी आत्मा का आधा भाग । दूसरे आधे भाग से लड़ रहा है । और यदि तुम स्वयं के भीतर लड़ रहे हो । तो कैसे विश्राम को उपलब्ध होओगे ?
पूरी की पूरी मनुष्यता । अब तक स्किजोफ्रेनिक ढंग से । खंडित मानसिकता में जीती रही है । प्रत्येक व्यक्ति टुकड़ों में । खंडों में तोड़ दिया गया है । तुम्हारे धर्म । तुम्हारे दर्शनशास्त्र । तुम्हारे सिद्धांत । घाव भरने वाले नहीं । वरन घाव करने के साधन रहे हैं । वे अंतर्युद्ध । और संघर्ष के कारण रहे हैं । तुम खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते रहे हो । तुम्हारा दायां हाथ । बाएं हाथ को चोट पहुंचाता है । बायां हाथ । दाएं हाथ को घायल करता है । और अंतत: तुम्हारे दोनों हाथ लहूलुहान हो जाते हैं ।
पश्चिम ने चार्वाक को चुना । जोरबा को चुना । विक्षिप्तता से बचने का दूसरा रास्ता न था । 1 हिस्से को पूर्णतः नष्ट करना पड़ा । पश्चिम ने मनुष्य के आंतरिक सत्य को । उसकी चेतना को अस्वीकार कर दिया । आदमी केवल body है । कहीं कोई soul नहीं है । खाओ । पीओ । और मौज करो । बस यही 1 मात्र धर्म है । यह मन की शांति पाने का 1 उपाय था । संघर्ष से बाहर आने का । 1 निर्णय और निष्कर्ष पर पहुंचने का । क्योंकि यह स्वीकृत हो गया कि तुम 1 हो । केवल matter । केवल body ।
ऊपर ऊपर से देखो । तो ऐसा लगता है कि पूरब और पश्चिम अलग अलग चीजें कर रहे हैं । किंतु गहराई से समझो । तो वे 1 ही चीज कर रहे हैं । सचाई यह है कि वे 1 होने का बौद्धिक रूप से प्रयास कर रहे हैं । क्योंकि 2 होने का मतलब है । निरंतर बेचैनी में । सतत संघर्ष में होना । इससे बेहतर है कि - दूसरे का ख्याल ही भूल जाओ ।
इसी संदर्भ में । तुम्हें यह स्मरण दिलाना महत्वपूर्ण होगा कि आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि matter का होना 1 भ्रम है । पदार्थ का अस्तित्व नहीं है । वह केवल दिखाई देता है । वे इस निष्पत्ति पर 1 बिलकुल भिन्न मार्ग से पहुंचे हैं । पदार्थ का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए उन्होंने पाया कि जैसे जैसे पदार्थ में गहरे जाते हैं । वैसे वैसे उसकी भौतिकता । उसका पदार्थ पन कम से कम होता जाता है । और परमाणु के बाद 1 ऐसा बिंदु आता है । जहां कोई पदार्थ नहीं बचता । सिर्फ इलेक्ट्रॉन रह जाते हैं । जो विद्युत कण हैं । वे पदार्थ नहीं । सिर्फ ऊर्जा तरंगें हैं ।
पश्चिमी प्रतिभा को केवल matter के साथ काम करने की छूट थी । east में प्रतिभा के लिए । पहली चुनौती थी - अंतर्यात्रा । सिर्फ द्वितीय श्रेणी के लोगों ने । मध्यम कोटि के लोगों ने । बाहरी सांसारिक चीजों के लिए श्रम किया । जो वास्तव में बुद्धिमान थे । उन्होंने सदा ध्यान की दिशा में गति की ।
धीरे धीरे दूरी बढ़ती गई । पश्चिम भौतिकवादी हो गया । इसकी पूरी जिम्मेवारी ईसाई church की है । और पूर्वीय मनुष्यता अधिक से अधिक अध्यात्मवादी हो गई । प्रत्येक व्यक्ति में जो विभाजन । जो विखंडन किया गया था । वही विस्तृत पैमाने पर पूरब और पश्चिम का विभाजन बन गया ।
1 महान कवि ने लिखा है । पूरब पूरब है । और पश्चिम पश्चिम है । और दोनों कभी नहीं मिलेंगे । और इस कवि रुडयार्ड किपलिंग की पूरब में अत्यधिक रुचि थी । वह कई वर्षों तक india में रहा । वह सरकारी नौकरी में था । पर इस भेद को देखकर कि संपूर्ण पूर्वीय चेतना भीतर गति करती है । और पश्चिमी चेतना बहिर्मुखी है । वे कैसे मिल सकते हैं ?
मेरा पूरा काम रुडयार्ड किपलिंग को गलत सिद्ध करना है । मैं कहना चाहूंगा कि न पश्चिम पश्चिम है । न पूरब पूरब है । वे दोनों पहले से ही मिले हुए हैं । न कोई पूरब है । न कोई पश्चिम है । उनके दृष्टिकोण बहुत भिन्न रहे । लेकिन वे समझे जा सकते हैं ।
मेरी दृष्टि यह है । मेरा सारा प्रयास यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर 1 सेतु निर्मित हो । ताकि तुम 1 हो जाओ । पूर्ण हो जाओ । body से दुश्मनी न करो । वह तुम्हारा घर है । अपनी soul से शत्रुता न साधो । क्योंकि बिना चेतना के हो सकता है । तुम्हारा घर खूब सजा धजा हो । पर वह खाली मकान होगा । बिना मालिक के सूना । body और soul जब साथ साथ हों । तो 1 सौंदर्य पैदा होता है । 1 पूर्ण जीवन । 1 भरा पूरा जीवन ।
प्रतीक रूप में मैंने body के लिए जोरबा को और soul के लिए बुद्ध को चुना है । चाहे मैं जोरबा के विषय में कहूं । या बुद्ध के बारे में बोलूं । मेरे प्रत्येक वक्तव्य में । वे दोनों ही स्वतः समाहित हो जाते हैं । क्योंकि मेरे लिए वे अभिन्न हैं । यह सिर्फ बल देने की बात है कि किस पर ज्यादा जोर देना है ।
जोरबा केवल शुरुआत है । यदि तुम अपने जोरबा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त होने की स्वीकृति देते हो । तो तुम्हें कुछ बेहतर । कुछ उच्चतर । कुछ महत्तर । सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा । वह मात्र वैचारिक चिंतन से पैदा नहीं हो सकता । वह तुम्हारे अनुभव से जन्मेगा । क्योंकि वे छोटे छोटे । क्षुद्र अनुभव । उकताने वाले हो जाएंगे । गौतम बुद्ध स्वयं इसीलिए बुद्ध हो पाए । क्योंकि वे जोरबा की जिंदगी खूब अच्छी तरह जी चुके थे । पूरब ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि 29 वर्षों तक बुद्ध इस तरह जीए । जैसा कोई जोरबा कभी न जीया होगा ।
बुद्ध के father ने पूरे राज्य की सारी सुंदर लड़कियों को एकत्रित करके बुद्ध के भोगविलास की व्यवस्था की थी । उन्होंने भिन्न भिन्न ऋतुओं के लिए । अलग अलग जगहों पर । 3 शानदार महल बनवाए । उनके पास सुंदर बाग बगीचे और झीलें थीं । बुद्ध का पूरा जीवन सुख सुविधा संपन्न था । शुद्ध भोग विलास था  । पर उससे वे उकता गए । और यह प्रश्न उनके मन में महत्वपूर्ण होने लगा कि क्या यही सब कुछ है ? फिर मैं कल के लिए क्यों जिये जा रहा हूं । जीवन का कुछ अर्थ । कुछ और अभिप्राय होना चाहिए । अन्यथा जीवन सारहीन है ।
बुद्धत्व की खोज प्रारंभ होती है । जोरबा को भरपूर जी लेने से । हर आदमी बुद्ध नहीं हो पाता । उसका मूल कारण है कि जोरबा अनजीया रह जाता है । मेरा तर्क देखते हो न । मैं कहता हूं कि जोरबा को जी भर के । पूर्णता से जी लो । तो तुम स्वाभाविक ढंग से । बुद्ध के जीवन में प्रवेश कर जाओगे ।
अपने body का सुख लो । अपने पार्थिव अस्तित्व को भोगो । इसमें कोई पाप नहीं है । इसके पर्दे में । इसके पीछे छिपा है । तुम्हारा आध्यात्मिक विकास । तुम्हारा आत्मिक आनंद । जब तुम भौतिक सुखों से थक जाओगे । केवल तब तुम पूछोगे । क्या इसके अतिरिक्त कुछ और भी है ? स्मरण रहे । यह प्रश्न मात्र बुद्धिगत नहीं हो सकता । इसे अस्तित्वगत होना पड़ेगा । क्या कुछ और भी है ? जब यह प्रश्न अस्तित्वगत होगा । तभी तुम अपने भीतर वह कुछ और उपलब्ध कर पाओगे ।
निश्चित ही बहुत कुछ और भी है  । जोरबा तो केवल शुरुआत है । 1 बार बुद्धत्व की ज्योति जल जाए । जागरण की आभा तुम्हारी आत्मा पर फैल जाए । तब तुम जानोगे कि सांसारिक सुख छाया भी न था । वहां इतना अधिक आनंद है । परमानंद  । लेकिन वह आनंद सुख के विपरीत नहीं है । वस्तुतः वह सुख ही है । जो तुम्हें इस आनंद तक ले आया है । जोरबा और बुद्ध के बीच में कोई संघर्ष नहीं है । कोई झगड़ा नहीं है । जोरबा तीर का निशान है । 1 संकेत चीन है । यदि तुम उस दिशा में ठीक से अनुसरण करो । तो बुद्ध तक पहुंच जाओगे । ओशो । बियांड एनलाइटनमेंट । 

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ऐसा लगता है कि दुनिया दिन पर दिन अधिक से अधिक पागल होती जा रही है । कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है ? और हर चीज उलटी सीधी । और गड़बड़ हो गई है । यह बात अखबार कहते हैं । क्या यह सच है ? और यदि ऐसा है । तो क्या जीवन में कोई आत्यंतिक संतुलन है । जो हर चीज को स्थिर रखे हुए है ?
दुनिया वैसी ही है । यह हमेशा ऐसी ही रही है । उलटी । पागल । विक्षिप्त । सच तो यह है कि सिर्फ 1 नई बात दुनिया में हुई है । और वह यह होश कि हम पागल हैं कि हम उलटे हैं कि हममें कुछ मौलिक गलती है । और यह महान आशीर्वाद है - यह होश । निश्चित ही यह शुरुआत है । 1 लंबी प्रक्रिया का सिर्फ क ख ग । सिर्फ बीज । लेकिन बहुत अर्थपूर्ण । दुनिया अपने विक्षिप्त ढंगों के प्रति कभी भी सचेत नहीं थी । जितनी कि आज है । यह हमेशा ऐसी ही रही है । 3000 सालों में मानव ने 5000 युद्ध किए । क्या तुम कह सकते हो कि मानवता स्वस्थ रही है ? कोई मानवता के इतिहास में यह याद भी नहीं कर सकता कि कोई ऐसा समय रहा हो । जब लोग 1 - दूसरे को धर्म के नाम पर । या परमात्मा के नाम पर । या शांति । मानवता । वैश्विक भाईचारे के नाम पर नष्ट न करते रहे हों । बड़े बड़े शब्दों के पीछे कुरूप असलियत छिपी है । ईसाई मुसलमानों की हत्या करते रहे । मुसलमान ईसाइयों की हत्या करते रहे । मुसलमान हिंदुओं की हत्या करते रहे । हिंदु मुसलमानों की हत्या करते रहे । राजनैतिक विचारधाराएं । धार्मिक विचारधाराएं । दार्शनिक विचारधाराएं । हत्याओं के लिए मुखौटे रहे हैं । हत्या को उचित ठहराने का ढंग । और ये सारे religion लोगों से वादा कर रहे थे कि यदि तुम धर्मयुद्ध में मारे जाते हो । तो तुम्हारा स्वर्ग निश्चित है । युद्ध में हत्या करना पाप नहीं है । युद्ध में मारा जाना बहुत बड़ा पुण्य है । यह निरी मूर्खता है । लेकिन 10 हजार सालों के संस्कार मानवता के खून में । हड्डियों में । मज्जा में गहरे चले गए हैं ।
हर धर्म । हर देश । हर वर्ग । दावा कर रहा था - हम परमात्मा के चुने हुए लोग हैं । हम श्रेष्ठ हैं । सभी हम से नीचे हैं । यह पागलपन है । और इसके कारण सभी ने दुख झेला । हर बच्चा स्वस्थ चित्त पैदा होता है । और धीरे धीरे हम उसे सभ्य बनाते हैं । हम इसे सभ्य बनाने की प्रक्रिया कहते हैं । हम उसे महान संस्कृति । महान चर्च । वह महान राज्य । जिसमें वह रहता है । उसका हिस्सा बनने के लिए तैयार करते हैं । हमारी सारी राजनीति मूर्खतापूर्ण है । और तब वह मूर्ख बन जाता है । हमारी सारी शिक्षा भद्दी है । हमारी राजनीति और कुछ नहीं बस महत्वाकांक्षा है । नंगी महत्वाकांक्षा । ताकत की महत्वाकांक्षा । और सिर्फ शूद्रतम लोग ताकत में रुचि रखते हैं । सिर्फ वे लोग जो गहरी आत्महीनता की ग्रथि से पीड़ित हैं । वे ही राजनेता बनते हैं । वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे हीन नहीं हैं । वे दूसरों के सामने सिद्ध करना चाहते हैं । वे स्वयं के सामने सिद्ध करना चाहते हैं कि वे हीन नहीं हैं । वे श्रेष्ठ हैं ।
राजनेता विक्षिप्त हैं । लेकिन हम अपने बच्चों को सिखाते हैं कि वे राजनेता बनें । हम अपने बच्चों को वही संस्कृति सिखाते हैं । जिसने हमें दुख दिया । वही मूल्य । जो हमारी छाती पर बोझ बने हुए हैं । जो सिर्फ सूक्ष्म जंजीरें सिद्ध हुए हैं । कैदखाने । लेकिन हम अपने बच्चों को संस्कारित किए चले जाते हैं । उसी शिक्षा ने जिसने हमारे प्रसाद । हमारी निर्दोषता को नष्ट कर दिया । हम वही शिक्षा हमारे बच्चों को सिर में ठूंसते चले जाते हैं । और हम अपने बच्चों से झूठ बोलते चले जाते हैं । जैसे कि हमारे माता पिता हमारे से झूठ बोलते रहे ।
और यह सदियों से चला आ रहा है । मानवता कैसे स्वस्थ । ठीक । विश्रांत हो सकती है ? इसका पागल होना तय है । जरा देखो कि तुम कैसे अपने बच्चों से झूठ बोले चले जा रहे हो ।
पहली बार । मानवता के संपूर्ण इतिहास में । कुछ लोग । इस बात को लेकर सचेत हुए हैं कि हम अभी तक गलत ढंग से बने रहे हैं । कुछ मूल बात हमारी बुनियाद में ही चूक रही है । कुछ है । जो हमें स्वस्थ मानव नहीं बनने देती । हमारे संस्कारों में विक्षिप्तता के बीज हैं । लेकिन आज 1 बात अच्छी हो रही है । कम से कम थोड़े से युवा लोग इस बात को लेकर सचेत हो रहे हैं कि हमारा सारा अतीत गलत रहा है । और इसे संपूर्ण बदलाव की जरूरत है - हमें अतीत से सातत्य तोड़ने की जरूरत है । हमें ताजा शुरुआत करने की जरूरत है । सारे अतीत का प्रयोग पूरी तरह से असफल हो गया !
1 बार हम सत्य जैसा है । वैसा स्वीकार लेते हैं । तो मानव स्वस्थ हो सकता है । मानव जन्मजात स्वस्थ है । हम उसे पागल बना देते हैं । 1 बार हम स्वीकार लें कि यहां कोई country और कोई वर्ग नहीं है । मानव शांत और मौन हो जाएगा । ये सारी हिंसा और आक्रामकता विदा हो जाएगी । यदि हम मानव के शरीर । उसकी कामुकता । उसकी स्वाभाविकता को स्वीकार लें । तो religion के नाम पर सब तरह के मूर्खताएं सिखाई जाती हैं । वे वाष्पीभूत हो जाएगी । 99% मनोवैज्ञानिक समस्याएं मानव के sex के दमन से पैदा होती हैं ।
हमें मानव को अतीत से मुक्त करना है । यहां मेरा सारा कार्य यही है । तुम्हें अतीत से मुक्त करने में सहायक होऊं । समाज ने जो कुछ भी तुम्हारे साथ किया है । उसे अनकिया करना है । तुम्हारी चेतना साफ होनी चाहिए । रिक्त । ताकि तुम साफ आईने की तरह हो सको । जो वास्तविकता को प्रतिबिंबित करता है । वास्तविकता को प्रतिबिंबित करने में योग्य होना । god को जान लेना है । वास्तविकता का दूसरा नाम god  है । वह जो है । और मानव सचमुच स्वस्थ तब होता है । जब वह सत्य को जान लेता है ।
सत्य मुक्ति लाता है । सत्य विवेक लाता है । सत्य ज्ञान लाता है । सत्य निर्दोषता लाता है । सत्य आनंद लाता है । सत्य उत्सव लाता है । हमें इस सारी पृथ्वी को महानतम उत्सव में बदलना है । और यह संभव है । क्योंकि मानव वह सब कुछ ले आया है । जो इस पृथ्वी को स्वर्ग में बदल सकता है । ओशो । कम । कम । येट अगेन कम ।

बहुत दे दिया धोखा स्वयं को अब और नहीं

मैं यहां तुम्हें स्वपन देने के लिये नहीं हूं । बल्कि बिलकुल इसके विपरीत । मैं यहां तुम्हारे स्वपनों को धवस्त करने के लिये हूं । तुम मेरे बारे यह नहीं कह सकते कि मैं सही हूं । या ग़लत । अधिक से अधिक तुम यही कह सकते हो कि मैं उलझन पैदा कर रहा हूं । लेकिन यही मेरा उपाय है । तुम्हें उलझा दूं । कहां तक तुम यह सह सकोगे कि मैं यहां से वहां । और वहां से यहां बदलता रहूं । 1 दिन तुम चिल्लाने ही वाले हो । दूर रहो । अब निर्णय मैं लूंगा ।  मैं कोई गंभीर कार्य नहीं कर रहा । मैं कार्य कर ही नहीं रहा । यह मेरी मौज है । जो मैं तुमसे बांट रहा हूं । अब तुम इसके साथ क्या करते हो । यह तुम्हारी समस्या है । मेरी नहीं । मेरी देशना है कि अतीत से संपूर्ण संबंध विच्छेद हो । मैं चाहता हूं कि पहले तुम ज़ोरबा की भांति जियो । उस नींव पर ही तुम्हारे बुद्धत्व का मंदिर निर्मित होगा । इस तरह हम बाहर और भीतर को एक ही सूत्र में पिरो देंगे । बाहर भी उतना ही तुम्हारा है । जितना भीतर । मैं तुम्हें यहां हिन्दू । mussalman या ईसाई बनाने के लिये नहीं । वह सब बकवास मेरे लिये नहीं । मैं यहां तुम्हें धार्मिक होने में मदद करने के लिये हूं । बिना किसी विशेषण के । और एक बार तुम इसे समझ लो । तो पूरा संसार एक नये रंग में रंग जाता है । मैं कोई कारण नहीं देखता कि भीतर और बाहर में विभाजन किया जाये । मैं गरीब रहा हूं ।  मैनें अत्यंत गरीबी देखी है । और मैं अमीरी में भी जिया हूं । मेरी मानों । समृद्धि दरिद्रता से कहीं बेहतर है । मैं अत्यंत सरल अभिरुचियों का व्यक्ति हूं ।  मैं किसी भी श्रेष्टतम से संतुष्ट हूं ।  मैं अधिक नहीं चाहता । मैं तुम्हारे किये कुछ कर नहीं रहा हूं । क्योंकि वह भी एक प्रकार का अहंकार है । कोई भी यह सोचे कि वह तुम्हारे लिये कुछ कर रहा है । यह बस घट रहा है ।
मैं कोई विचार नहीं हूं । और न ही मैं कहीं अटका हूं । मैं प्रवाह में हूं । मैं हैराक्लिटस से सहमत हूं कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते । यदि अनुवाद किया जाए । तो इसका अर्थ हुआ । तुम एक ही व्यक्ति को दोबारा नहीं मिल सकते । मैं उससे सहमत ही नहीं हूं । बल्कि एक कदम आगे जाता हूं कि एक ही नदी में तुम एक बार भी नहीं उतर सकते । मनुष्य के संसार में यदि इसका अनुवाद किया जाए । तो अर्थ यह हुआ कि तुम एक ही व्यक्ति को । एक बार भी नहीं मिल सकते । क्योंकि एक बार भी जब तुम उसे मिल रहे हो । तो वह बदल रहा है । तुम बदल रहे हो । संपूर्ण संसार बदल रहा है । मैं यहां किन्हीं मुद्दों पर चर्चा करने के लिये नहीं । अपितु तुम्हारे भीतर एक विशिष्ट गुणवत्ता पैदा करने के लिये हूं । मैं तुम्हें कुछ समझाने के लिये नहीं बोल रहा । मेरा बोलना बस एक सृजनात्मक घटना है ।  मेरा बोलना । तुम्हें कुछ समझाने का प्रयास नहीं । वह तो तुम किताबों से भी समझ सकते हो । और इसके अतिरिक्त लाखों अन्य तरीकों द्वारा यह संभव है । मैं तो यहां केवल तुम्हें रूपांतरित करने के लिये हूं ।
मैं एक साधारण व्यक्ति हूं । मेरे पास कोई करिश्मा नहीं । और मैं करिश्मे में विश्वास नहीं करता ।  मैं पद्धतियों में विश्वास नहीं करता । भले ही मैं उनका इस्तेमाल करता हूं । लेकिन मैं उन पर विश्वास नहीं करता । मैं एक साधारण व्यक्ति हूं । बहुत आम । मैं भीड़ में खो सकता हूं । और तुम कभी मुझे ढूंढ न पाओगे । मैं तुम्हारे आगे नहीं  साथ चलता हूं । मैं बेरोज़गार हूं । मैं कुछ भी नहीं कर रहा । सब इच्छाएं मिट गईं हैं । सब करना तिरोहित हो गया है । मैं बस यहां हूं । तुम्हारे लिये मैं बस एक अस्तित्व हूं । यदि तुम मुझे प्रेम करते हो । तो तुम मेरा उत्साह से स्वागत करोगे । और तुम्हें अत्यंत लाभ होगा । यदि तुम मुझे घृणा करते हो । तो तुम चूक जाओगे । और ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी । अब चुनाव तुम्हारा है । लेकिन मैं कुछ नहीं कर रहा ।
मेरा पूरा प्रयास । एक नयी शुरुआत करने का है । इससे विश्व भर में मेरी आलोचना निश्चित है । लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । परवाह किसे है । गौतम बुद्ध अतीत के सब गुरुओं का प्रतिरूप हैं । शिष्य को दूर रखना होगा । उसे अनुशासन  समादर और आज्ञापालन सीखना होगा । यह एक प्रकार से आध्यात्मिक ग़ुलामी हुई । मैं नहीं चाहता कि तुम मेरे गुलाम बनो । और मैं नहीं चाहता कि तुम मेरा आज्ञा पालन करो । मैं सिर्फ यह चाहता हूं कि तुम तुम मुझे समझो । और यदि मेरा अनुभव प्रमाणिक है । और तुम्हारा विवेक उसे समझ पाता है । तो तुम स्वयं ही उसका अनुसरण करोगे । यह आज्ञा पालन न हुआ । मैं तुम्हें कुछ करने को नहीं कह रहा । मैं सिर्फ तुम्हें समझने के लिये कह रहा हूं । और फिर तुम्हारा विवेक जहां तुम्हें ले जाये ।  तुम उसका अनुसरण करो । तुम जो भी बनो । मैं प्रसन्न हूं । बस स्वयं के साथ सच्चे और ईमानदार रहो ।  मैं तुम्हें लुभा रहा हूं । ताकि तुम जीवन के प्रति प्रेमपूर्ण हो सको । थोड़ा और काव्यमयी हो सको । तुम तुच्छ व साधारण के प्रति उदासीन हो सको । ताकि तुम्हारे जीवन में उदात्त का विस्फोट हो जाए ।
मुझे एक उद्धारक की तरह न देखें । इस विचार के कारण ही कि कोई उद्धारक आ गया है । कोई मसीहा आ गया है । लोग वैसे ही जीते रहते हैं । जैसे वे जीते रहे हैं । वे क्या कर सकते हैं ? उनका कहना है कि सब कुछ तभी होगा । जब कोई मसीहा आयेगा । यह उनका ढंग है । रूपांतरण को टालने का । यह उनका ढंग है । स्वयं को धोखा देने का । बहुत हो चुका । बहुत दे दिया । धोखा स्वयं को । अब और नहीं । कोई मसीहा नहीं आने वाला । तुम्हें स्वयं कार्य करना होगा । तुम्हें स्वयं के प्रति । अपनी ज़िम्मेदारी निभानी होगी । और जब तुम ज़िम्मेदार होते हो । तो सब कुछ स्वयं घटने लगता है । मैं चाहता हूं कि जो भी बाहर उपलब्ध है । लोग उसके साथ सहजता से जियें । जल्दी न करें । क्योंकि जो भी अनजिया रह गया । तुम्हें वापस खींचेगा । इसे खत्म करें । और तब तुम्हें अपने घर से । या अपने बैंक के खाते से भागना न पड़ेगा ।  क्योंकि वे फिर तुम पर बोझ न रहेंगे । उनका कोई अर्थ ही न रह जायेगा । संभव है । उनका कोई उपयोग हो सके । लेकिन उनमें कोई ग़लती नहीं । ओशो ।

सत्य को जानना है तो अपनी बुद्धि के कुओं से बाहर आ जाओ

साधारण आदमी जब उसके जीवन में दुख आता है । तब शिकायत करता है । सुख आता है । तब धन्यवाद नहीं देता । जब दुख आता है । तब वह कहता है कि - कहीं कुछ भूल हो रही है । god नाराज है । भाग्य विपरीत है । और जब सुख आता है । तब वह कहता है कि - यह मेरी विजय है ।
मुल्ला नसरुद्दीन 1 प्रदर्शनी में गया । अपने विद्यार्थियों को साथ लेकर । उस प्रदर्शनी में 1 जुए का खेल चल रहा था । लोग तीर चला रहे थे  धनुष से । और 1 निशाने पर चोट मार रहे थे । निशाने पर चोट लग जाये । तो जितना दांव पर लगाते थे । उससे 10 गुना उन्हें मिल जाता था । निशाने पर चोट न लगे । तो जो उन्होंने दांव पर लगाया । वह खो जाता । nasruddin अपने student के साथ पहुँचा । उसने अपनी टोपी सम्हाली । धनुष बाण उठाया ।  दांव लगाया । और पहला तीर छोड़ा । तीर पहुंचा ही नहीं निशान तक । लगने की बात दूर । वह कोई 10-15 फीट पहले गिर गया । लोग हंसने लगे । नसरुद्दीन ने अपने विद्यार्थियों से कहा - इन नासमझों की हंसी की फिक्र मत करो । अब तुम्हें समझाता हूं कि - तीर क्यों गिरा ।  लोग भी चौंककर खड़े हो गये । वह जो जुआ खिलाने वाला था । वह भी चौंककर रह गया । बात ही भूल गया । नसरुद्दीन ने कहा - देखो  यह उस, सिपाही का तीर है । जिसको आत्मा पर भरोसा नहीं । जिसको आत्मविश्वास नहीं । वह पहुंचता ही नहीं है -लक्ष्य तक ।  पहले ही गिर जाता है । अब तुम दूसरा तीर देखो ।
 सभी लोग उत्सुक हो गये । उसने दूसरी तीर प्रत्यंचा पर रखा । और तेजी से चलाया । वह तीर निशान से बहुत आगे गया । इस बार लोग हंसे नहीं । नसरुद्दीन ने कहा - देखो यह उस आदमी का तीर है । जो जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ है ।
और तब उसने तीसरा तीर उठाया । और संयोग की बात कि वह जाकर निशान से लग गया । nasruddin ने जाकर अपना दांव उठाया । और कहा - 10 गुने रुपये दो ।
भीड़ में थोड़ी फुसुसाहट हुई । और लोगों ने पूछा - और यह किसका तीर है ? नसरुद्दीन ने कहा - यह मेरा तीर है । पहला तीर उस सिपाही का था । जिसको आत्मविश्वास नहीं है । दूसरा  उस सिपाही का था । जिसको ज्यादा आत्मविश्वास है । और तीसरा-जो लग गया । वह मेरा तीर है ।
यही साधारण मनोदशा है । जब तीर लग जाये । तो तुम्हारा ।  चूक जाये । तो कोई और जिम्मेवार है । और जब तुम किसी को जिम्मेवार न खोज सको । तो god जिम्मेवार है । जब तक तुम दृश्य जगत में किसी को जिम्मेदार खोज लेते हो । तब तक अपने दुख उस पर डाल देते हो । अगर दृश्य जगत में तुम्हें कोई जिम्मेवार न दिखाई पड़े । तब भी तुम जिम्मेवारी अपने कंधे पर तो नहीं ले सकते । तब god तुम्हारे काम आता है । वह तुम्हारे बोझ को अपने कंधे पर ढोता है ।
तुमने परमात्मा को अपने दुखों से ढांक दिया है । अगर वह दिखाई नहीं पड़ता है । तो हो सकता है । सबने मिलकर इतने दुख उस पर ढांक दिये हैं कि - वह ढंक गया है । और उसे खोजना मुश्किल है ।
शब्दों या शास्त्रों की सीमा में सत्य नहीं है । असल में जहां सीमा है । वहीं सत्य नहीं है । सत्य तो असीम है । उसे जानने को बुद्धि और विचारों की परिधि को तोड़ना आवश्यक है । असीम होकर ही असीम को जाना जाता है । विचार के घेरे से मुक्त होते ही चेतना असीम हो जाती है । वैसे ही जैसे मिट्टी के घड़े को फोड़ दें । तो उसके भीतर का आकाश असीम आकाश से 1 हो जाता है ।
सूर्य आकाश के मध्य में आ गया था । 1 सुंदर हंस 1 सागर से दूसरे सागर की ओर उड़ा जा रहा था । लंबी यात्रा और धूप की थकान से वह भूमि पर उतरकर 1 कुएं की पाट पर विश्राम करने लगा । वह बैठ भी नहीं पाया था कि कुएं के भीतर से 1 मेंढक की आवाज आयी - मित्र who are you और कहां से आए हो ?  वह हंस बोला - मैं एक अत्यंत दरिद्र हंस हूँ । और सागर पर मेरा निवास है ।  मेंढक का सागर से परिचित व्यक्ति से पहला ही मिलन था । वह पूछने लगा - सागर कितना बड़ा है ?  हंस ने कहा - असीम । इस पर मेंढक ने पानी में 1 छलांग लगाई । और पूछा - क्या इतना बड़ा ?
वह हंस हंसने लगा । और बोला - प्यारे मेंढक । नहीं । सागर इससे अनंत गुना बड़ा है । इस पर मेंढक ने 1 और बड़ी छलांग लगाई । और पूछा - क्या इतना बड़ा ? उत्तर फिर भी नकारात्मक पाकर मेंढक ने कुएं की पूर्ण परिधि में कूदकर चक्कर लगाया और पूछा - अब तो ठीक है  । सागर इससे बड़ा और क्या होगा ? उसकी आंखों में विश्वास की झलक थी । और इस बार उत्तर के नकारात्मक होने की उसे कोई आशा न थी । लेकिन उस हंस ने पुन: कहा - नहीं मित्र ! नहीं तुम्हारे कुएं से सागर को मापने का कोई उपाय नहीं है । इस पर मेंढक तिरस्कार से हंसने लगा । और बोला - महानुभाव ! असत्य की भी सीमा होती है ?  मेरे संसार से बड़ा सागर कभी भी नहीं हो सकता ।
मैं सत्य के खोजियों से क्या कहता हूं । कहता हूं - सत्य के सागर को जानना है । तो अपनी बुद्धि के कुओं से बाहर आ जाओ । बुद्धि से सत्य को पाने का कोई उपाय नहीं । वह अमाप है । उसे तो वही पाता है । जो स्वयं के सब बांध तोड़ देता है । उनके कारण ही बाधा है । उनके मिटते ही सत्य जाना ही नहीं जाता । वरन उससे एक्य हो जाता है । उससे 1 हो जाना ही उसे जानना है । 

उसने कहा - मैं मौत हूँ

मैंने सुना है कि 1 गांव के बाहर 1 फकीर रहता था । 1 रात उसने देखा कि 1 काली छाया गांव में प्रवेश कर रही है । उसने पूछा कि - तुम कौन हो ? उसने कहा - मैं मौत हूँ । और शहर में महामारी फैलने वाली है । इसीलिये मैं जा रही हूं । 1000 आदमी मरने है । बहुत काम है । मैं रूक न सकूँगी । महीने भर में शहर में 10000 आदमी मर गये । फकीर ने सोचा । हद हो गई झूठ की । मौत खुद ही झूठ बोल रही है । हम तो सोचते थे कि आदमी ही बेईमान है । ये तो देखो मौत भी बेईमान हो गई । कहा 1000 और मार दिये 10000 । मौत जब 1 महीने बाद आई । तो फकीर ने पूछा कि तुम तो कहती थी 1000 आदमी ही मारने है । 10000 आदमी मर चुके । और अभी मरने ही जा रहे है ।
उस मौत ने कहा । मैंने तो 1000 ही मारे हैं । 9000 तो घबराकर मर गये हैं । मैं तो आज जा रही हूं । और पीछे से जो लोग मरेंगे । उनसे मेरा कोई संबंध नहीं होगा । और देखना । अभी भी शायद इतने ही मेरे जाने के बाद मर जाए । वह खुद मर रहे है । यह आत्‍महत्या है । जो आदमी भरोसा करके मर जाता है । यदि मर गया । वह भी आत्‍महत्या हो गयी । ऐसी आत्‍महत्‍याओं पर मंत्र काम कर सकते है । ताबीज काम कर सकते है । राख काम कर सकती है । उसमें संत वंत को कोई लेना देना नहीं है । अब हमें पता चल गया है कि उसकी मानसिक तरकीबें है । तो ऐसे अंधे है ।
सुना है मैंने । 1 घर में 2 वर्ष से 1 आदमी लक़वे से परेशान है । उठ नहीं सकता है । न हिल ही सकता है । सवाल ही नहीं है उठने का । सूख गया है । 1 रात । आधी रात । घर में आग लग गयी है । सारे लोग घर के बाहर पहुंच गये । पर प्रमुख तो घर के भीतर ही रह गया । पर उन्‍होंने क्‍या देखा कि प्रमुख तो भागे चले आ रहे हैं । यह तो बिलकुल चमत्‍कार हो गया । आग की बात तो भूल ही गये । देखा ये तो गजब हो गया । लकवा जिसको 2 साल से लगा हुआ था । वह भागा चला आ रहा है । अरे आप चल कैसे सकते है । और वह वहीं वापस गिर गया । मैं चल ही नहीं सकता ।
अभी लक़वे के मरीजों पर सैकड़ों प्रयोग किये गये । लक़वे के मरीज को हिप्नोटाइज करके । बेहोश करके । चलवाया जा सकता है । और वह चलता है । तो उसका शरीर तो कोई गड़बड़ नहीं करता । बेहोशी में चलता है । और होश में नहीं चल पाता । चलता है । चाहे बेहोशी में ही क्‍यों न चलता हो । 1 बात का तो सबूत है कि उसके अंगों में कोई खराबी नहीं है । क्‍योंकि बेहोशी में अंग कैसे काम कर रहे है । अगर खराब हो । लेकिन होश में आकर वह गिर जाता है । तो इसका मतलब साफ है ।
बहुत से बहरे है । जो झूठे बहरे है । इसका मतलब यह नहीं है कि उनको पता नहीं है । क्‍योंकि अचेतन मन ने उनको बहरा बना दिया है । बेहोशी में सुनते है । होश में बहरे हो जाते है । ये सब बीमारियाँ ठीक हो सकती है । लेकिन इसमें चमत्कार कुछ भी नहीं है । चमत्‍कार नहीं है । विज्ञान जो भीतर काम कर रहा है । साइकोलाजी । वह भी पूरी तरह स्‍पष्‍ट नहीं है । आज नहीं कल । पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो जायेगा ।
आप 1 साधु के पास गये । उसने आपको देखकर कह दिया । आपका फलां नाम है ? आप फलां गांव से आ रहे है । बस आप चमत्‍कृत हो गये । हद हो गयी । कैसे पता चला । मेरा गांव । मेरा नाम । मेरा घर ? क्‍योंकि टेलीपैथी अभी अविकसित विज्ञान है ।  बुनियादी सुत्र प्रगट हो चुके है । अभी दूसरे के मन के विचार को पढ़ने कि साइंस धीरे धीरे विकसित हो रही है । और साफ हुई जा रही है । उसका सबूत है । कुछ लेना देना नहीं है । कोई भी पढ़ सकेगा । कल जब साइंस हो जायेगी । कोई भी पढ़ सकेगा । अभी भी काम हुआ है । और दूसरे के विचार को पढ़ने में बड़ी आसानी हो गयी है । छोटी सी तरकीब आपको बता दूँ । आप भी पढ़ सकते है । एक दो चार दिन प्रयोग करें । तो आपको पता चल जायेगा । और आप पढ सकते है । लेकिन जब आप खेल देखेंगे । तो आप समझेंगे कि भारी चमत्‍कार हो रहा है ।
1 छोटे बच्‍चे को लेकर बैठ जायें । रात अँधेरा कर लें । कमरे में । उसको दूर कोने में बैठा लें । आप यहां बैठ जायें । और उस बच्‍चे से कह दें कि हमारी तरफ ध्‍यान रख । और सुनने की कोशिश कर । हम कुछ न कुछ कहने की कोशिश कर रहे है । और अपने मन में एक ही शब्‍द ले लें । और उसको जोर से दोहरायें । अंदर ही दोहरायें । गुलाब । गुलाब को जोर से दोहरायें । गुलाब । गुलाब । गुलाब दोहरायें । आवाज में नहीं । मन में जोर से । आप देखेंगे कि 3 दिन में बच्‍चे ने पकड़ना शुरू कर दिया । वह वहां से कहेगा । क्‍या आप गुलाब कह रहे है । तब आपको पता चलेगा कि बात क्‍या हो गयी ।
जब आप भीतर जोर से गुलाब दोहराते है । तो दूसरे तक उसकी विचार तरंगें पहुंचनी शुरू हो जाती है । बस वह जरा सा रिसेप्‍टिव होने की कला सीखने की बात है । बच्‍चे रिसेप्‍टिव है । फिर इससे उलट भी किया जा सकता है । बच्‍चे को कहे कि वह 1 शब्‍द मन में दोहरायें । और आप उसे तरफ ध्‍यान रखकर । बैठकर पकड़ने की कोशिश करेंगें । बच्‍चा 3 दिन में पकड़ा है । तो आप 6 दिन में पकड़ सकते है । कि वह क्‍या दोहरा रहा है । और जब 1 शब्‍द पकड़ा जा सकता है । तो फिर कुछ भी पकड़ा जा सकता है ।
हर आदमी के अंदर विचार कि तरंगें मौजूद है । वह पकड़ी जा रही है । लेकिन इसका विज्ञान अभी बहुत साफ न होने की वजह से कुछ मदारी इसका उपयोग कर रह है । जिनको यह तरकीब पता है । वह कुछ उपयोग कर रहे है । फिर वह आपको दिक्‍कत में डाल देते है । यह सारी की सारी बातों में कोई चमत्‍कार नहीं है । न चमत्‍कार कभी पृथ्‍वी पर हुआ नहीं । न कभी होगा ।1000 साल गुलाम रहे थे । और यहां ऐसे चमत्‍कारी पड़े है कि जिसका कोई हिसाब नहीं । गुलामी की जंजीरें नहीं कटतीं । ऐसा लगता है कि अंग्रेजो के सामने चमत्‍कार नहीं चलता । चमत्‍कार होने के लिए हिंदुस्‍तानी होना जरूरी है । क्‍योंकि अगर खोपड़ी में थोड़ी भी विचार चलता हो । तो चमत्‍कार के कटने का डर रहता है । तो जहां विचार है । बिलकुल न चला पाओगे चमत्‍कार को । सबसे बड़ा चमत्‍कार यह है कि लोग चमत्‍कार कर रहे है । सबसे बड़ा चमत्‍कार यह है कि हम खुद भी होते हुए चमत्‍कार देख रहे हैं । और घरों में बैठकर चर्चा कर रहे हैं । कि चमत्‍कार हो रहा है । और कोई इन चमत्‍कारियों की जाकर गर्दन नहीं पकड़ लेता कि जो खो गयी है घड़ी । उसको बाहर निकलवा ले कि क्‍या मामला है । क्‍या कर रहे हो ? वह नहीं होता है ।
हम हाथ पैर जोड़कर खड़े हैं । उसका कारण है । हमारे भीतर कमजोरियाँ हैं । जब राख की पुड़िया निकलती है । तो हम सोचते है कि भई शायद और भी कुछ निकल आयें पीछे । राख की पुड़िया से कुछ होने वाला नहीं है न । आगे कुछ और संभावना बनती है । आशा बंधती है । और कोई बीमार है । किसी को नौकरी नहीं मिली है । किसी की पत्‍नी मर गई है । किसी का किसी से प्रेम है । किसी का मुकदमा चल रहा है । सबकी तकलीफें है । तो लगता है । जो आदमी ऐसा कर रहा है । अपनी तकलीफ भी कुछ कम कर रहा है । दौड़ो इसके पीछे ।
बीमारी । गरीबी । परेशानी । उलझनें कारण हैं कि हम चमत्‍कारियों के पीछे भाग रहे है । कोई धार्मिक जिज्ञासा कारण है । धार्मिक जिज्ञासा से इसका कोई संबंध नहीं है । धार्मिक जिज्ञासा से इसका क्‍या वास्‍ता । धार्मिक जिज्ञासा का क्‍या हल होगा । इन सारी बातों से । लेकिन लोग करते चले जाएंगे । क्‍योंकि हम गहरे अज्ञान में है । गहरे विश्‍वास में है । लोग कहते चले जाएंगे । और शोषण होता चला जायेगा । पुराने चित ने चमत्‍कारी पैदा किया था । लेकिन जिन जिन कौमों ने चमत्‍कारी पैदा किये । उन उन कौमों ने विज्ञान पैदा नहीं किया ।
ध्‍यान रहे । चमत्‍कारी चित वहीं पैदा हो सकता है । जहां एंटी सांइटिफिक माइंड हो । जहां विज्ञान विरोधी चित हो । जहां विज्ञान आयेगा । वहां चमत्‍कारी मरेगा । क्‍योंकि विज्ञान कहेगा । चमत्‍कार को कि हम काज़ और इफेक्‍ट में मानते है । हम मानते है । कार्य और कारण में । विज्ञान किसी चमत्‍कार को नहीं मानता है । उसने हजारों चमत्‍कार किये है । जिनमें से एक भी कोई संत कर देता । तो हम हजारों लाखों साल तक उसकी पूजा करते । अब यह पंखा चल रहा है । यह माइक आवाज कर रहा है । यह चमत्‍कार नहीं होगा । क्‍योंकि यह विज्ञान ने किया है । और विज्ञान किसी चीज को छिपाता नहीं है । सारे कार्य कारण प्रगट कर देता है । आदमी का ह्रदय बदला जा रहा है । दूसरे का ह्रदय उसके काम कर रहा है । आदमी के सारे शरीर के पार्ट बदले जा रहे है ।
आज नहीं कल । हम आदमी की स्‍मृति भी बदल सकेंगे । उसकी भी संभावना बढ़ती जा रही है । कोई जरूरी नहीं है कि एक आइंस्‍टीन माइंड वह मर ही जाये । आइंस्‍टीन मरे । मरे । उसकी स्‍मृति को बचाकर हम एक नये बच्‍चे में ट्रांस्‍पलांट कर सकते है । इतने बड़े चमत्‍कार घटित हो रहे है । लेकिन कोई नासमझ न कहेगा कि ये चमत्‍कार है । कहेगा । ऐसा चमत्‍कार क्‍या है । और कोई आदमी की फोटो में से राख झाड़ देता है । हम हाथ जोड़कर खडे हो जाते है । चमत्‍कार हो रहा है । बड़ा आश्‍चर्य है । अवैज्ञानिक विज्ञान विरोधी चित है । विज्ञान ने इतने चमत्‍कार घटित किये है कि हमें पता ही नहीं चलता । क्‍योंकि विज्ञान चमत्‍कार का दावा नहीं करता । विज्ञान खुला सत्‍य है । ओपन सीक्रेट है ।
और यह जो बेईमानों की दुनिया है यहां । इसलिए अगर किसी आदमी को कोई तरकीब पता चल जाती है । तो उसको खोलकर नहीं रख सकता । क्‍योंकि खोले तो चमत्‍कार गया । इसलिए ऐसे मुल्‍क का ज्ञान रोज बढ़ जाता है । अगर मुझे कोई चीज पता चल जाये । और चमत्‍कार करना हो । तो पहली जरूरत हो । यह है कि उसके पीछे जो राज है । उसको मैं प्रगट न करूं । आयुर्वेद ने बहुत विकास किया । लेकिन आयुर्वेद का जो वैद्य था । वह वह चमत्‍कार कर रहा था । इसलिए आयुर्वेद पिछड़ गया । नहीं तो आयुर्वेद की आज की स्‍थिति एलोपैथी से कहीं बहुत आगे होती । क्‍योंकि ऐलापैथी की खोज बहुत नयी है । आयुर्वेद की खोज बहुत पुरानी है । इसलिए एक वैद्य को जो पता है । वह अपने बेटे को भी न बातयेगा । नहीं तो चमत्‍कार गड़बड़ हो जायेगा । मजा लेना चाहता है
मजा लेना चाहता है । टीका । छाप लगाकर । और साफ़ा वगैरह बांधकर बैठा रहेगा । और मर जायेगा । वह जो जान लिया था । वह छिपा जायेगा । क्‍योंकि वह अगर पूरी कड़ी बता दे । तो फिर चमत्‍कार नहीं होगा । लेकिन तब साइंस बंद करनी पड़ी । हिंदुस्‍तान में कोई साइंस नही बनती । जिस आदमी को जो पता है । वह उसको छिपाकर रखता है । वह कभी उसका पता किसी को चलने नहीं देगा । क्‍योंकि पता चला कि चमत्‍कार खत्‍म हो गया । इस वजह से हमारे मुल्‍क में ज्ञान की बहुत दफे किरणें प्रगट हुई । लेकिन ज्ञान का सूरज कभी न बन पाया । क्‍योंकि एक एक किरण मर गयी । और उसे कभी हम बपौती न बना पाये कि उसे हम आगे दे सकें । उसको देने में डर है । क्‍योंकि दिया तो कम से कम उसे तो पता ही चल जायेगा कि अरे ।
एक महिला मेरे पास प्रोफसर थी । वह संस्‍कृत की प्रोफेसर थी । वह इसी तरह एक मदारी के चक्‍कर में आ गयी । जिनकी फोटो से राख गिरती है । और ताबीज निकलते है । उसने मुझसे आकर आशीर्वाद मांगा कि मैं अब जा रही हूं । सब छोड़कर । मुझे तो भगवान मिल गये है । अब कहां यहां पड़ी रहूंगी । आप मुझे आशीर्वाद दें । मैंने कहा । यह आशीर्वाद मांगना ऐसा है । जैसे कोई आये कि अब मैं जा रहा हूं । कुएं में गिरने को । और उसको मैं आशीर्वाद दूं । मैं न दूंगा । तुम कुएं में गिरो मजे से । लेकिन इसमें ध्‍यान रखना कि मैंने आशीर्वाद नही दिया । क्‍योंकि मैं इस पाप में क्‍यों भागीदार होऊं । मरो तुम । फंसू मैं । यह मैं न करूंगा । तुम जाओ । मजे से गिरो । लेकिन जिस दिन तुम्‍हें पता चल जाये कि कुएं में गिर गई हो । और अगर बच सकी हो । तो मुझे खबर जरूर कर देना ।
5 - 7 साल बीत गए । मुझे याद भी नहीं रहा । उस महिला का क्‍या हुआ । क्‍या नहीं हुआ । पिछले वक्‍त बंबई में बोल रहा था सभा में । तो वह उठकर आयी । और उसने मुझे आकर कहा । आपने जो कहा । वह घटना हो गयी है । तो मैं कब आकर पूरी बात बजा जाऊं । लेकिन कृपा करके किसी और को मत बताना । मैंने कहा । क्‍यों ? उसने कहा । वह भी मैं कल बताऊंगी । वह कल आयी । उसने कहा । अब बड़ी मुश्‍किल हो गयी । जिन ताबीजों को आकाश से निकालते देखकर मैं प्रभावित हुई थी । अब मैं उन्‍हीं संत की प्राइवेट सेकेट्री हो गई हूं । अब मैं उन्‍हीं के ताबीज बाजार से खरीद कर लाती हूं । बिस्‍तर के नीचे छिपा आती हूं । प्रगट होने का सब राज पता हो गया है । अब मैं भी प्रगट कर सकती हूं । लेकिन बड़ी मुशिकल में पड़ गयी हूं । उसी चमत्‍कार से तो हम आये भी । अब वह चमत्‍कार सब खत्‍म हो गया है । अब मैं क्‍या करूं ? अब मैं छोड़कर आ जाऊं । तो उसमें तो और भी मुश्‍किल है ।
कालेज में नौकरी करती थी । मुझे 700 रूपये मिलते थे । अब मुझे कोई दो - 2500 रूपये को फायदा । महीने का होगा । और इतने रूपये आते है मेरे पास कि जितने उसमें से उड़ा दूं । वह अलग है । उसका कोई हिसाब नहीं है । इसलिए मैं आ तो नहीं सकती । इसलिए मैं आपको कहती हूं । कृपा करके किसी और को मत कह देना । अब मेरी काम अच्‍छा चल रहा है । नौकरी है । लेकिन अब तो चमत्‍कार वह अध्‍यात्‍म का कोई लेना देना नहीं है । तो इसलिए पता न चल जाय । वह सारा त्‍याग चल रहा है । ज्ञान पता है । प्रगट होने को उत्‍सुक होता है । बेइमानी सदा अप्रकट रहना चाहती है । ज्ञान सदा खुलता है । बेईमानी सदा छिपाती है । नहीं । कोई मिरेकल जैसी चीज दुनिया में नहीं होती । न हो सकती है । और अगर होती होगी । तो पीछे जरूर कारण होगा । यह हो सकता है । और अगर होती होगी । तो पीछे जरूर करण होगा । यह हो सकता है । आज कारण न खोजा जा सके । कल खोज लिया जायेगा । परसों खोज लिया जायेगा । 

क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं वहां अतीत और भविष्य 1 हो गए हैं

महावीर से गोशालक के नाराज हो जाने के कुछ कारणों में 1 कारण यह पौधा भी था । महावीर को छोड़कर चले जाने में । ज्योतिष का । जिस ज्योतिष की मैं बात कर रहा हूं । उसका संबंध अनिवार्य से  । एसेंशियल से । फाउंडेशनल से है । आपकी उत्सुकता ज्यादा से ज्यादा सेमी एसेंशियल तक जाती है । पता लगाना चाहते हैं कि कितने दिन जीऊंगा ? मर तो नहीं जाऊंगा ? जीकर क्या करूंगा । जी ही लूंगा । तो क्या करूंगा । इस तक आपकी उत्सुकता ही नहीं पहुंचती । मरूंगा । तो मरते में क्या करूंगा ।  इस तक आपकी उत्सुकता नहीं पहुंचती । घटनाओं तक पहुंचती है । आत्माओं तक नहीं पहुंचती । जब मैं जी रहा हूं ।  तो यह तो घटना है सिर्फ । जीकर मैं क्या कर रहा हूं । जीकर मैं क्या हूं । वह मेरी आत्मा है । जब मैं मरूंगा । वह तो घटना होगी । लेकिन मरते क्षण में मैं क्या होऊंगा । क्या करूंगा । वह मेरी आत्मा होगी । हम सब मरेंगे । मरने के मामले में सबकी घटना एक सी घटेगी । लेकिन मरने के संबंध में । मरने के क्षण में । हमारी स्थिति सबकी भिन्न होगी । कोई मुस्कुराते हुए मर सकता है ।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है । जब वह मरने के करीब है । उससे कोई पूछ रहा है कि आपका क्या खयाल है मुल्ला । लोग जब पैदा होते हैं । तो कहां से आते हैं ? जब मरते हैं । तो कहां जाते हैं ? मुल्ला ने कहा । जहां तक अनुभव की बात है । मैंने लोगों को पैदा होते वक्त भी रोते ही पैदा होते देखा । और मरते वक्त भी रोते ही जाते देखा है । अच्छी जगह से न आते हैं । न अच्छी जगह जाते हैं । इनको देखकर जो अंदाज लगता है ।  न अच्छी जगह से आते हैं । न अच्छी जगह जाते हैं । आते हैं । तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं । जाते हैं । तब भी रोते हुए मालूम पड़ते हैं ।
लेकिन नसरुद्दीन जैसा आदमी हंसता हुआ मर सकता है । मौत तो घटना है । लेकिन हंसते हुए मरना आत्मा है । तो आप कभी ज्योतिषी से पूछे कि मैं हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए ? नहीं पूछा होगा ।
पूरी पृथ्वी पर एक आदमी ने नहीं पूछा । ज्योतिषी से जाकर कि मैं मरते वक्त हंसते हुए मरूंगा कि रोते हुए मरूंगा ? यह पूछने जैसी बात है । लेकिन यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से जुड़ी हुई बात है ।
आप पूछते हैं । कब मरूंगा ? जैसे मरना । अपने आप में मूल्यवान है बहुत । कब तक जीऊंगा ? जैसे बस जी लेना काफी है । किसलिए जीऊंगा । क्यों जीऊंगा  ? जीकर क्या करूंगा ?  जीकर क्या हो जाऊंगा ? कोई पूछने नहीं जाता । इसलिए महल गिर गया । क्योंकि वह महल गिर जाएगा । जिसके आधार नॉन एसेंशियल पर रखे हों । गैर जरूरी चीजों पर । जिसकी हमने दीवारें खड़ी कर दी हों । वह कैसे टिकेगा । आधार शिलाएं चाहिए । मैं जिस ज्योतिष की बात कर रहा हूं । और आप जिसे ज्योतिष समझते रहे हैं ।  उससे गहरी है । उससे भिन्न है । उससे आयाम और है । मैं इस बात की चर्चा कर रहा हूं कि कुछ आपके जीवन में अनिवार्य है । और वह अनिवार्य आपके जीवन में और जगत के जीवन में संयुक्त और लयबद्ध है ।  अलग अलग नहीं है । उसमें पूरा जगत भागीदार है । उसमें आप अकेले नहीं हैं ।
जब बुद्ध को ज्ञान हुआ । तो बुद्ध ने दोनों हाथ जोड़कर पृथ्वी पर सिर टेक दिया । कथा है कि आकाश से देवता बुद्ध को नमस्कार करने आए थे कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं । बुद्ध को पृथ्वी पर हाथ टेके सिर रखे देखकर वे चकित हुए । उन्होंने पूछा कि तुम और किसको नमस्कार कर रहे हो ? क्योंकि हम तो तुम्हें नमस्कार करने स्वर्ग से आते हैं । और हम तो नहीं जानते कि बुद्ध भी किसी को नमस्कार करे । ऐसा कोई है । बुद्धत्व तो आखिरी बात है ।
तो बुद्ध ने आंखें खोलीं । और बुद्ध ने कहा - जो भी घटित हुआ है । उसमें मैं अकेला नहीं हूं । सारा विश्व है । तो इस सबको धन्यवाद देने के लिए सिर टेक दिया है । यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी से बंधी हुई बात है । सारा जगत ।
इसलिए बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि - जब भी तुम्हें कुछ भी भीतरी आनंद मिले । तत्क्षण अनुगृहीत हो जाना । समस्त जगत के । क्योंकि तुम अकेले नहीं हो । अगर सूरज न निकलता । अगर चांद न निकलता । अगर एक रत्ती भर भी घटना और घटी होती । तो तुम्हें यह नहीं होने वाला था । जो हुआ है । माना कि तुम्हें हुआ है । लेकिन सबका हाथ है । सारा जगत । उसमें इकट्ठा है । एक कास्मिक । जागतिक अंतर संबंध का नाम ज्योतिष है ।
तो बुद्ध ऐसा नहीं कहेंगे कि - मुझे हुआ है । बुद्ध इतना ही कहते हैं कि जगत को मेरे मध्य हुआ है । यह जो घटना घटी है । एनलाइटेनमेंट की । यह जो प्रकाश का आविर्भाव हुआ है । यह जगत ने मेरे बहाने जाना है । मैं सिर्फ 1 बहाना हूं । 1 क्रास रोड । जहां सारे जगत के रास्ते आकर मिल गए हैं ।
कभी आपने खयाल किया है कि चौराहा बड़ा भारी होता है । लेकिन चौराहा अपने में कुछ नहीं होता । वे जो 4 रास्ते आकर मिले होते हैं । उन चारों को हटा लें । तो चौराहा विदा हो जाता है । हम सब क्रिसक्रास प्वाइंट्स हैं । जहां जगत की अनंत शक्तियां आकर एक बिंदु को काटती हैं । वहां व्यक्ति निर्मित हो जाता है । इंडिविजुअल बन जाता है ।
तो वह जो सारभूत ज्योतिष है । उसका अर्थ केवल इतना ही है कि हम अलग नहीं हैं । एक  उस 1 बृह्म के साथ हैं । उस 1 बृह्मांड के साथ हैं । और प्रत्येक घटना भागीदार है ।
तो बुद्ध ने कहा है कि - मुझसे पहले जो बुद्ध हुए । उनको नमस्कार करता हूं । और मेरे बाद जो बुद्ध होंगे । उनको नमस्कार करता हूं । किसी ने पूछा कि आप उनको नमस्कार करें । जो आपके पहले हुए । समझ में आता है । क्योंकि हो सकता है । उनसे कोई जाना अनजाना ऋण हो । क्योंकि जो आपके पहले जान चुके हैं । उनके ज्ञान ने आपको साथ दिया हो ।
लेकिन जो अभी हुए ही नहीं । उनसे आपको क्या लेना देना है ? उनसे आपको कौन सी सहायता मिली है ? तो बुद्ध ने कहा - जो हुए हैं । उनसे भी मुझे सहायता मिली है । जो अभी नहीं हुए हैं । उनसे भी मुझे सहायता मिली है । क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं । वहां अतीत और भविष्य 1 हो गए हैं । वहां जो जा चुका है । वह उससे मिल रहा है । जो अभी आने को है । वहां जो जा चुका । उससे मिलन हो रहा है । उसका जो अभी आने को है । वहां सूर्योदय और सूर्यास्त 1 ही बिंदु पर खड़े हैं । तो मैं उन्हें भी नमस्कार करता हूं । जो होंगे । उनका भी मुझ पर ऋण है । क्योंकि अगर वे भविष्य में न हों । तो मैं आज न हो सकूंगा । इसको समझना थोड़ा कठिन पड़ेगा । यह एसेंशियल एस्ट्रोलाजी की बात है । कल जो हुआ है । अगर उसमें से कुछ भी खिसक जाए । तो मैं न हो सकूंगा ।  क्योंकि मैं 1 शृंखला में बंधा हूं । यह समझ में आता है । अगर मेरे पिता न हों  जगत में । तो मैं न हो सकूंगा । यह समझ में आता है । क्योंकि 1 कड़ी अगर विदा हो जाएगी । तो मैं नहीं हो सकूंगा । अगर मेरे पिता के पिता न हों । तो मैं न हो सकूंगा । क्योंकि कड़ी विसर्जित हो जाएगी । लेकिन मेरा भविष्य अगर उसमें कोई कड़ी न हो । तो मैं न हो सकूंगा । समझना बहुत मुश्किल पड़ेगा । क्योंकि उससे क्या लेना देना । मैं तो हो ही गया हूं । लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर भविष्य में भी जो होने वाला है । वह न हो । तो मैं न हो सकूंगा । क्योंकि भविष्य और अतीत दोनों के बीच की मैं कड़ी हूं । कहीं भी कोई बदलाहट होगी । तो मैं वैसा ही नहीं हो सकूंगा । जैसा हूं । कल ने भी मुझे बनाया । आने वाला कल भी मुझे बनाता है । यही ज्योतिष है । बीता कल ही नहीं । आने वाला कल भी । जा चुका ही नहीं । जो आ रहा है वह भी । जो सूरज पृथ्वी पर उगे । वे ही नहीं । जो उगेंगे वे भी । वे भी भागीदार हैं । वे भी आज के क्षण को निर्मित कर रहे हैं । क्योंकि यह जो वर्तमान का क्षण है । यह हो ही न सकेगा । अगर भविष्य का क्षण इसके आगे न खड़ा हो । उसके सहारे ही यह हो पाता है । हम सबके हाथ भविष्य के कंधे पर रखे हुए हैं । हम सबके पैर अतीत के कंधों पर पड़े हुए हैं । हम सबके हाथ भविष्य के कंधों पर रखे हुए हैं । नीचे तो हमें दिखाई पड़ता है कि अगर मेरे नीचे जो खड़ा है । वह न हो । तो मैं गिर जाऊंगा । लेकिन भविष्य में मेरे जो फैले हाथ हैं । वे जो कंधों को पकड़े हुए हैं । अगर वे भी न हों । तो भी मैं गिर जाऊंगा । जब कोई व्यक्ति अपने को इतनी आंतरिक एकता में अतीत और भविष्य के बीच जुड़ा हुआ पाता है । तब वह ज्योतिष को समझ पाता है । तब ज्योतिष धर्म बन जाता है । तब ज्योतिष अध्यात्म हो जाता है । और नहीं तो वह । जो नॉन एसेंशियल है । गैर जरूरी है । उससे जुड़कर ज्योतिष सड़क की मदारीगिरी हो जाता है । उसका फिर कोई मूल्य नहीं रह जाता । श्रेष्ठतम विज्ञान भी जमीन पर पड़कर धूल की कीमत के हो जाते हैं । हम उनका क्या उपयोग करते हैं । इस पर सारी बात निर्भर है । इसलिए मैं बहुत द्वारों से एक तरफ आपको धक्का दे रहा हूं कि आपको यह खयाल में आ सके कि सब संयुक्त है । संयुक्तता इस जगत का 1 परिवार होना । या 1 आर्गेनिक बॉडी होना । 1 शरीर की तरह होना । मैं सांस लेता हूं । तो पूरा शरीर प्रभावित होता है । सूरज सांस लेता है । तो पृथ्वी प्रभावित होती है । और दूर के महासूर्य हैं । वे भी कुछ करते हैं । तो पृथ्वी प्रभावित होती है । और पृथ्वी प्रभावित होती है । तो हम प्रभावित होते हैं । सब चीज । छोटा सा रोआं तक । महान सूर्यों के साथ जुड़कर कंपता है । कंपित होता है । यह खयाल में आ जाए । तो हम सारभूत ज्योतिष में प्रवेश कर सकें । और असारभूत ज्योतिष की जो व्यर्थताएं हैं । उनसे भी बच सकें । क्षुद्रतम बातें । हम ज्योतिष से जोड़कर बैठ गए हैं । अति क्षुद्र । जिनका कहीं भी कोई मूल्य नहीं है । और उनको जोड़ने की वजह से बड़ी कठिनाई होती है । जैसे हमने जोड़ रखा है कि 1 आदमी गरीब पैदा होगा । या 1 आदमी अमीर पैदा होगा । तो इसका संबंध ज्योतिष से होगा । नहीं  गैर जरूरी बात है । अगर आप नहीं जानते हैं । तो ज्योतिष से संबंध जुड़ा रहेगा  अगर आप जान लेते हैं । तो आपके हाथ में आ जाएगा ।
1 बहुत मीठी कहानी आपको कहूं । तो खयाल में आए । जिंदगी ऐसा ही बैलेंस है । ऐसा ही संतुलन है । मोहम्मद का 1 शिष्य है । अली । और अली मोहम्मद से पूछता है कि बड़ा विवाद है सदा से कि मनुष्य स्वतंत्र है । अपने कृत्य में । या परतंत्र । बंधा है कि मुक्त । मैं जो करना चाहता हूं । वह कर सकता हूं । या नहीं कर सकता हूं । सदा से आदमी ने यह पूछा है । क्योंकि अगर हम कर ही नहीं सकते कुछ । तो फिर किसी आदमी को कहना कि चोरी मत करो । झूठ मत बोलो । ईमानदार बनो । नासमझी है  । 1 आदमी अगर चोर होने को ही बंधा है । तो यह समझाते फिरना कि चोरी मत करो । नासमझी है  । या फिर यह हो सकता है कि एक आदमी के भाग्य में बदा है कि वह यही समझाता रहे कि चोरी न करो । जानते हुए कि चोर चोरी करेगा । बेईमान बेईमानी करेगा । असाधु असाधु होगा । हत्या करने वाला हत्या करेगा । लेकिन अपने भाग्य में यह बदा है कि अपन लोगों को कहते फिरो कि चोरी मत करो । एब्सर्ड है । अगर सब सुनिश्चित है । तो समस्त शिक्षाएं बेकार हैं \ सब प्रोफेट । और सब पैगंबर । और सब तीर्थंकर । व्यर्थ हैं ।
महावीर से भी लोग पूछते हैं । बुद्ध से भी लोग पूछते हैं कि अगर होना है । वही होना है । तो आप समझा क्यों रहे हैं ? किसलिए समझा रहे हैं ? मोहम्मद से भी अली पूछता है कि आप क्या कहते हैं ? अगर महावीर से पूछा होता अली ने । तो महावीर ने जटिल उत्तर दिया होता । अगर बुद्ध से पूछा होता तो बड़ी गहरी बात कही होती ।
लेकिन मोहम्मद ने वैसा उत्तर दिया । जो अली की समझ में आ सकता था । कई बार मोहम्मद के उत्तर बहुत सीधे और साफ हैं । अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग कम पढ़े लिखे हैं । ग्रामीण हैं । उनके उत्तर सीधे और साफ होते हैं । जैसे कबीर के । या नानक के । या मोहम्मद के । या जीसस के । बुद्ध और महावीर के । और कृष्ण के । उत्तर जटिल हैं । वह संस्कृति का मक्खन है । जीसस की बात ऐसी है । जैसे किसी ने लट्ठ सिर पर मार दिया हो ।
कबीर तो कहते ही हैं । कबीरा खड़ा बजार में । लिए लुकाठी हाथ । लट्ठ लिए बाजार में खड़े हैं । कोई आए । हम उसका सिर खोल दें ।
मोहम्मद ने कोई बहुत मेटाफिजिकल बात नहीं कही । मोहम्मद ने कहा - अली । एक पैर उठाकर खड़ा हो जा । अली ने कहा कि हम पूछते हैं कि कर्म करने में आदमी स्वतंत्र है कि परतंत्र । मोहम्मद ने कहा । तू पहले 1 पैर उठा । अली बेचारा 1 पैर । बायां पैर । उठाकर खड़ा हो गया । मोहम्मद ने कहा । अब तू दायां भी उठा ले । अली ने कहा । आप क्या बातें करते हैं । तो मोहम्मद ने कहा कि अगर तू चाहता पहले । तो दायां भी उठा सकता था । अब नहीं उठा सकता । तो मोहम्मद ने कहा कि 1 पैर उठाने को आदमी सदा स्वतंत्र है । लेकिन 1 पैर उठाते ही तत्काल दूसरा पैर बंध जाता है । वह जो नॉन एसेंशियल हिस्सा है । हमारी जिंदगी का । जो गैर जरूरी हिस्सा है । उसमें हम पूरी तरह पैर उठाने को स्वतंत्र हैं । लेकिन ध्यान रखना । उसमें उठाए गए पैर भी एसेंशियल हिस्से में बंधन बन जाते हैं । वह जो बहुत जरूरी है । वहां भी फंसाव पैदा हो जाता है । गैर जरूरी बातों में पैर उठाते हैं । और जरूरी बातों में फंस जाते हैं । 

इसका बीइंग से आत्मा से कोई संबंध नहीं है

महाभारत अमरीका की चर्चा करता है । अर्जुन की एक पत्नी मेक्सिको की लड़की है । मेक्सिको में जो मंदिर हैं । वे हिंदू मंदिर हैं । जिन पर गणेश की मूर्ति तक खुदी हुई है ।
बहुत बार सत्य खोज लिए जाते हैं । खो जाते हैं । बहुत बार हमें सत्य पकड़ में आ जाता है । फिर खो जाता है । ज्योतिष उन बड़े से बड़े सत्यों में से एक है । जो पूरा का पूरा खयाल में आ चुका । और खो गया । उसे फिर से खयाल में लाने के लिए बड़ी कठिनाई है । इसलिए मैं बहुत सी दिशाओं से आपसे बात कर रहा हूं । क्योंकि ज्योतिष पर सीधी बात करने का अर्थ होता है कि वह जो सड़क पर ज्योतिषी बैठा है । शायद मैं उसके संबंध में कुछ कह रहा हूं । जिसको आप 4 आने देकर और अपना भविष्य फल निकलवा आते हैं । शायद उसके संबंध में या उसके समर्थन में कुछ कह रहा हूं ।
नहीं । ज्योतिष के नाम पर 100 में से 99 धोखाधड़ी है । और वह जो 100वां आदमी है । 99 को छोड़कर । उसे समझना बहुत मुश्किल है । क्योंकि वह कभी इतना डागमेटिक नहीं हो सकता कि कह दे कि ऐसा होगा ही । क्योंकि वह जानता है कि ज्योतिष बहुत बड़ी घटना है । इतनी बड़ी घटना है कि आदमी बहुत झिझककर ही वहां पैर रख सकता है । जब मैं ज्योतिष के संबंध में कुछ कह रहा हूं । तो मेरा प्रयोजन है कि मैं उस पूरे पूरे विज्ञान को आपको बहुत तरफ से उसके दर्शन करा दूं । उस महल के । तो फिर आप भीतर बहुत आश्वस्त होकर प्रवेश कर सकें । और मैं जब ज्योतिष की बात कर रहा हूं । तो ज्योतिषी की बात नहीं कर रहा हूं । उतनी छोटी बात नहीं है । पर आदमी की उत्सुकता उसी में है कि उसे पता चल जाए कि उसकी लड़की की शादी इस साल होगी कि नहीं होगी ।
इस संबंध में यह भी आपको कह दूं कि ज्योतिष के 3 हिस्से हैं ।
1 - जिसे हम कहें अनिवार्य । एसेंशियल । जिसमें रत्ती भर फर्क नहीं होता । वही सर्वाधिक कठिन है । उसे जानना । फिर उसके बाहर की परिधि है । नॉन एसेंशियल । जिसमें सब परिवर्तन हो सकते हैं । मगर हम उसी को जानने को उत्सुक होते हैं । और उन दोनों के बीच में एक परिधि है । सेमी एसेंशियल । अर्द्ध अनिवार्य । जिसमें जानने से परिवर्तन हो सकते हैं । न जानने से कभी परिवर्तन नहीं होंगे । 3 हिस्से कर लें । एसेंशियल । जो बिलकुल गहरा है । अनिवार्य । जिसमें कोई अंतर नहीं हो सकता । उसे जानने के बाद । उसके साथ सहयोग करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है । धर्मों ने इस अनिवार्य तथ्य की खोज के लिए ही ज्योतिष की ईजाद की । उस तरफ गए । उसके बाद दूसरा हिस्सा है । सेमी एसेंशियल । अर्द्ध अनिवार्य । अगर जान लेंगे । तो बदल सकते हैं । अगर नहीं जानेंगे । तो नहीं बदल पाएंगे । अज्ञान रहेगा । तो जो होना है । वही होगा । ज्ञान होगा । तो आल्टरनेटिव्स हैं । विकल्प हैं । बदलाहट हो सकती है । और तीसरा सबसे ऊपर का सरफेस । वह है । नॉन एसेंशियल । उसमें कुछ भी जरूरी नहीं है । सब सांयोगिक है ।
लेकिन हम जिस ज्योतिषी की बात समझते हैं । वह नॉन एसेंशियल का ही मामला है । 1 आदमी कहता है । मेरी नौकरी लग जाएगी । या नहीं लग जाएगी ? चांद तारों के प्रभाव से आपकी नौकरी के लगने । न लगने का कोई भी गहरा संबंध नहीं है । 1 आदमी पूछता है । मेरी शादी हो जाएगी । या नहीं हो जाएगी ? शादी के बिना भी समाज हो सकता है । 1 आदमी पूछता है कि मैं गरीब रहूंगा कि अमीर रहूंगा ? 1 समाज कम्युनिस्ट हो सकता है । कोई गरीब और अमीर नहीं होगा । ये नॉन एसेंशियल हिस्से हैं । जो हम पूछते हैं । 1 आदमी पूछता है कि 80 साल में मैं सड़क पर से गुजर रहा था । और 1 संतरे के छिलके पर पैर पड़ कर गिर पड़ा । तो मेरे चांद तारों का इसमें कोई हाथ है । या नहीं है ? अब कोई चांद तारे से तय नहीं किया जा सकता कि फलां फलां नाम के संतरे से और फलां फलां सड़क पर आपका पैर फिसलेगा । यह निपट गंवारी है ।
लेकिन हमारी उत्सुकता इसमें है कि आज हम निकलेंगे सड़क पर से । तो कोई छिलके पर पैर पड़कर फिसल तो नहीं जाएगा । यह नॉन एसेंशियल है । यह हजारों कारणों पर निर्भर है । लेकिन इसके होने की कोई अनिवार्यता नहीं है । इसका बीइंग से । आत्मा से कोई संबंध नहीं है । यह घटनाओं की सतह है । ज्योतिष से इसका कोई लेना देना नहीं है । और चूंकि ज्योतिषी इसी तरह की बातचीत में लगे रहते हैं । इसलिए ज्योतिष का भवन गिर गया । ज्योतिष के भवन के गिर जाने का कारण यह हुआ कि ये बातें बेवकूफी की हैं । कोई भी बुद्धिमान आदमी इस बात को मानने को राजी नहीं हो सकता कि मैं जिस दिन पैदा हुआ । उस दिन लिखा था कि मरीन ड्राइव पर फलां फलां दिन 1 छिलके पर मेरा पैर पड़ जाएगा । और मैं फिसल जाऊंगा । न तो मेरे फिसलने का चांद त्तारों से कोई प्रयोजन है । न उस छिलके का कोई प्रयोजन है । इन बातों से संबंधित होने के कारण ज्योतिष बदनाम हुआ । और हम सबकी उत्सुकता यही है कि ऐसा पता चल जाए । इससे कोई संबंध नहीं है ।
सेमी एसेंशियल कुछ बातें हैं । जैसे जन्म मृत्यु सेमी एसेंशियल हैं । अगर आप इसके बाबत पूरा जान लें । तो इसमें फर्क हो सकता है । और न जानें । तो फर्क नहीं होगा । चिकित्सा की हमारी जानकारी बढ़ जाएगी । तो हम आदमी की उमृ को लंबा कर लेंगे । कर रहे हैं । अगर हमारी एटम बम की खोजबीन और बढ़ती चली गई । तो हम लाखों लोगों को एक साथ मार डालेंगे । मारा है । यह सेमी एसेंशियल । अर्द्ध अनिवार्य जगत है । जहां कुछ चीजें हो सकती हैं । नहीं भी हो सकती हैं । अगर जान लेंगे । तो अच्छा है । क्योंकि विकल्प चुने जा सकते हैं । इसके बाद एसेंशियल का । अनिवार्य का जगत है । वहां कोई बदलाहट नहीं होती । लेकिन हमारी उत्सुकता । पहले तो नॉन एसेंशियल में रहती है । कभी शायद किसी की सेमी एसेंशियल तक जाती है । वह जो एसेंशियल है । अनिवार्य है । अपरिहार्य है । जिसमें कोई फर्क होता ही नहीं । उस केंद्र तक हमारी पकड़ नहीं जाती । न हमारी इच्छा जाती है ।
महावीर 1 गांव के पास से गुजर रहे हैं । और महावीर का एक शिष्य गोशालक उनके साथ है । जो बाद में उनका विरोधी हो गया । 1 पौधे के पास से दोनों गुजरते हैं । गोशालक महावीर से कहता है  - सुनिए । यह पौधा लगा हुआ है । क्या सोचते हैं आप । यह फूल तक पहुंचेगा । या नहीं पहुंचेगा ? इसमें फूल लगेंगे । या नहीं लगेंगे ? यह पौधा बचेगा । या नहीं बचेगा ? इसका भविष्य है । या नहीं ?
महावीर आंख बंद करके उसी पौधे के पास खड़े हो जाते हैं । गोशालक पूछता है - कहिए । आंख बंद करने से क्या होगा ? टालिए मत । उसे पता भी नहीं कि महावीर आंख बंद करके क्यों खड़े हो गए हैं । वे एसेंशियल की खोज कर रहे हैं । इस पौधे के बीइंग में उतरना जरूरी है । इस पौधे की आत्मा में उतरना जरूरी है । बिना इसके नहीं कहा जा सकता कि क्या होगा । आंख खोलकर महावीर कहते हैं कि यह पौधा फूल तक पहुंचेगा । गोशालक उनके सामने ही पौधे को उखाड़कर फेंक देता है । और खिलखिलाकर हंसता है । क्योंकि इससे ज्यादा और अतर्क्य प्रमाण क्या होगा ? महावीर के लिए कुछ कहने की अब और जरूरत क्या है ? उसने पौधे को उखाड़ कर फेंक दिया । और उसने कहा कि देख लें । वह हंसता है । महावीर मुस्कुराते हैं । और दोनों अपने रास्ते चले आते हैं ।
7 दिन बाद । वे वापस उसी रास्ते पर लौट रहे हैं । जैसे ही महावीर और वे दोनों अपने आश्रम में पहुंचे । जहां उन्हें ठहर जाना है । बड़ी भयंकर वर्षा हुई । 7 दिन तक मूसलाधार पानी पड़ता रहा । 7 दिन तक निकल नहीं सके । फिर लौट रहे हैं । जब लौटते हैं । तो ठीक उस जगह आकर महावीर खड़े हो गए हैं । जहां वे 7 दिन पहले आंख बंद करके खड़े थे । देखा कि वह पौधा खड़ा है । जोर से वर्षा हुई । उसकी जड़ें वापस गीली जमीन को पकड़ गईं । वह पौधा खड़ा हो गया ।
महावीर फिर आंख बंद करके उसके पास खड़े हो गए ।  गोशालक बहुत परेशान हुआ । उस पौधे को फेंक गए थे । महावीर ने आंख खोली । गोशालक ने पूछा - हैरान हूं । आश्चर्य । इस पौधे को हम उखाड़कर फेंक गए थे । यह तो फिर खड़ा हो गया है । महावीर ने कहा - यह फूल तक पहुंचेगा । और इसीलिए मैं आंख बंद करके खड़े होकर इसे देखा ! इसकी आंतरिक पोटेंशिएलिटी ।  इसकी आंतरिक संभावना क्या है ? इसकी भीतर की स्थिति क्या है ? तुम इसे बाहर से फेंक दोगे उठाकर । तो भी यह अपने पैर जमा कर खड़ा हो सकेगा ? यह कहीं आत्मघाती तो नहीं है । सुसाइडल इंस्टिंक्ट तो नहीं है इस पौधे में । कहीं यह मरने को उत्सुक तो नहीं है । अन्यथा तुम्हारा सहारा लेकर मर जाएगा । यह जीने को तत्पर है ? अगर यह जीने को तत्पर है तो । मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंक दोगे ।
गोशालक ने कहा - आप क्या कहते हैं ?
महावीर ने कहा - जब मैं इस पौधे को देख रहा था । तब तुम भी पास खड़े थे । और तुम भी दिखाई पड़ रहे थे । और मैं जानता था कि तुम इसे उखाड़ कर फेंकोगे । इसलिए ठीक से जान लेना जरूरी है कि पौधे की खड़े रहने की आंतरिक क्षमता कितनी है ? इसके पास आत्मबल कितना है ? यह कहीं मरने को तो उत्सुक नहीं है कि कोई भी बहाना लेकर मर जाए । तो तुम्हारा बहाना लेकर भी मर सकता है । और अन्यथा तुम्हारा उखाड़कर फेंका गया पौधा पुनः जड़ें पकड़ सकता है ।
गोशालक की दुबारा उस पौधे को उखाड़कर फेंकने की हिम्मत न पड़ी । डरा । पिछली बार गोशालक हंसता हुआ गया था । इस बार महावीर हंसते हुए आगे बढ़े । गोशालक रास्ते में पूछने लगा । आप हंसते क्यों हैं ? महावीर ने कहा कि मैं सोचता था कि देखें । तुम्हारी सामर्थ्य कितनी है । अब तुम दुबारा इसे उखाड़कर फेंकते हो । या नहीं ? गोशालक ने पूछा कि आपको तो पता चल जाना चाहिए कि मैं उखाड़कर फेंकूंगा । या नहीं ! तो महावीर ने कहा । वह गैर अनिवार्य है । तुम उखाड़कर फेंक भी सकते हो । नहीं भी फेंक सकते हो । अनिवार्य यह था कि पौधा अभी जीना चाहता था । उसके पूरे प्राण जीना चाहते थे । वह अनिवार्य था । वह एसेंशियल था । यह तो गैर अनिवार्य है । तुम फेंक भी सकते हो । नहीं भी फेंक सकते हो । तुम पर निर्भर है । लेकिन तुम पौधे से कमजोर सिद्ध हुए हो । हार गए हो ।

मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूँ

जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कम्पेयर करेंगे । तुलना करेंगे । तब तक हम एक गलत रास्ते पर चले जाएंगे । वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने की इच्छा पैदा करते हैं । जब कि कोई आदमी किसी दूसरे जैसा न बना है । और न बन सकता है ।
राम को मरे कितने दिन हो गए । या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गए ? दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता । और हजारों हजारों क्रिश्चिएन कोशिश में तो 24 घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जाएं । और हजारों हिंदु राम बनने की कोशिश में हैं । हजारों जैन । बुद्ध । महावीर बनने की कोशिश में लगे हैं । बनते क्यों नहीं एकाध ? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर पैदा क्यों नहीं होता ? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी ? मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं । जो रामलीला में बनते हैं राम । न आप समझ लें कि उनकी चर्चा कर रहा हूं । कई लोग राम बन जाते हैं । वैसे तो कई लोग बन जाते हैं । कई लोग बुद्ध जैसे कपड़े लपेट लेते हैं । और बुद्ध बन जाते हैं । कोई महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेता है । या नंगा हो जाता है । और महावीर बन जाता है । उनकी बात नहीं कर रहा । वे सब रामलीला के राम हैं । उनको छोड़ दें । लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है ?
यह आपको जिंदगी में भी पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कहीं हो सकता है ? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है । एक जड़ कंकड़ जैसा । यहां हर चीज यूनिक है । हर चीज अद्वितीय है । और जब तक हम प्रत्येक की अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं देंगे । तब तक दुनिया में प्रतियोगिता रहेगी । प्रतिस्पर्धा रहेगी । तब तक दुनिया में मारकाट रहेगी । तब तक दुनिया में हिंसा रहेगी । तब तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय करके आदमी आगे होना चाहेगा । दूसरे जैसा होना चाहेगा । और जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है । तो क्या फल होता है ? फल यह होता है । अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाए । या बड़े बड़े आदर्शवादी नेता वहां पहुंच जाएं । या बड़े बड़े शिक्षक वहां पहुंच जाएं । और उनको समझाएं कि देखो चमेली का फूल चंपा जैसा हो जाए । चमेली का फूल चंपा जैसा । चंपा का फूल जुही जैसा । क्योंकि देखो । जुही कितनी सुंदर है । और सब फूलों को अगर पागलपन आ जाए । हालांकि आ नहीं सकता । क्योंकि आदमी से पागल फूल नहीं है ।
आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें नहीं है कि वे चक्कर में पड़ जाएं । शिक्षकों के । उपदेशकों के । संन्यासियों के । साधुओं के । आदर्शवादियों के चक्कर में कोई फूल नहीं पड़ेगा । लेकिन फिर भी समझ लें । कल्पना कर लें कि कोई आदमी पहुंच जाए । और समझाए । उनको और वे चक्कर में आ जाएं । और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे । तो क्या होगा । उस बगिया में । उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं होंगे । उस बगिया में फिर फूल पैदा ही नहीं हो सकते । उस बगिया में फिर पौधे मुरझा जाएंगे । मर जाएंगे । क्यों ? क्योंकि चंपा लाख उपाय करे । तो चमेली नहीं हो सकती । वह उसके स्वभाव में नहीं है । वह उसके व्यक्तित्व में नहीं है । वह उसकी प्रकृति में नहीं है । चमेली तो चंपा हो ही नहीं सकती । लेकिन क्या होगा ? चमेली होने की कोशिश में वह चंपा भी नहीं हो पाएगी । वह जो हो सकती थी । उससे भी वंचित रह जाएगी ।

इसलिये तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं

प्रेम की कुछ भूल नहीं है । डूबने वालों की भूल है । और मैं तुमसे कहता हूं । जो प्रेम में नरक में उतर जाते थे । वे प्रार्थना से भी नरक में ही उतरेंगे । क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही एक रूप है । और जो घर में प्रेम की सीढ़ी से नीचे उतरते थे । वे आश्रम में भी प्रार्थना की सीढ़ी से नीचे ही उतरेंगे । असली सवाल सीढ़ी को बदलने का नहीं है । न सीढ़ी से भाग जाने का है । असली सवाल तो खुद की दिशा को बदलने का है ।
तो मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम संसार को छोड़कर भाग जाना । क्योंकि भागने वाले कुछ नहीं पाते । सीढ़ी को छोड़कर जो भाग गया । एक बात पक्की है कि वह नरक में नहीं उतर सकेगा । लेकिन दूसरी बात भी पक्की है कि - स्वर्ग में कैसे उठेगा ? तुम खतरे में जीते हो । संन्यासी सुरक्षा में । नरक में जाने का उसका उपाय उसने बंद कर दिया । लेकिन साथ ही स्वर्ग जाने का उपाय भी बंद हो गया । क्योंकि वे एक ही सीढ़ी के दो नाम हैं । संन्यासी जो भाग गया है । संसार से । वह तुम्हारे जैसे दुख में नहीं रहेगा । यह बात तय है । लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे । उसकी संभावना भी उसकी खो गई । माना कि तुम नरक में हो, लेकिन तुम स्वर्ग में हो सकते हो । और उसी सीढ़ी से जिससे तुम नरक में उतरे हो । 100 में 99 लोग नीचे की तरफ उतरते हैं । लेकिन यह कोई सीढ़ी का कसूर नहीं है । यह तुम्हारी ही भूल है ।
और स्वयं को न बदलकर सीढ़ी पर कसूर देना । स्वयं की आत्मक्रांति न करके सीढ़ी की निंदा करना बड़ी गहरी नासमझी है । अगर सीढ़ी तुम्हें नरक की तरफ उतार रही है । तो पक्का जान लेना कि यही सीढ़ी तुम्हें स्वर्ग की तरफ उठा सकेगी । तुम्हें दिशा बदलनी है । भागना नहीं है । क्या होगा दिशा का रूपांतरण ?
जब तुम किसी को प्रेम करते हो । वह कोई भी हो । मां हो । पिता हो । पत्नी हो । प्रेयसी हो । मित्र हो । बेटा हो । बेटी हो । कोई भी हो । प्रेम का गुण तो एक है । किससे प्रेम करते हो ? यह बड़ा सवाल नहीं है । जब भी तुम प्रेम करते हो । तो दो संभावनाएं हैं । एक तो यह कि जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो । या जिसे तुम प्रेम करते हो । उस पर तुम प्रेम के माध्यम से आधिपत्य करना चाहो । मालकियत करना चाहो । तुम नरक की तरफ उतरने शुरू हो गए ।
प्रेम जहां पजेशन बनता है । प्रेम जहां परिग्रह बनता है । प्रेम जहां आधिपत्य लाता है । प्रेम न रहा । यात्रा गलत हो गई । जिसे तुमने प्रेम किया है । उसके तुम मालिक बनना चाहो । बस भूल हो गई । क्योंकि मालिक तुम जिसके भी बन जाते हो । तुमने उसे गुलाम बना दिया । और जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो । तो याद रखना । उसने भी तुम्हें गुलाम बना दिया । क्योंकि गुलामी एकतरफा नहीं हो सकती । वह दोधारी धार है । जब भी तुम किसी को गुलाम बनाओगे । तुम भी उसके गुलाम बन जाओगे । यह हो सकता है कि तुम छाती पर ऊपर बैठे होओ । और वह नीचे पड़ा है ।
लेकिन न तो वह तुम्हें छोड़कर भाग सकता है । न तुम उसे छोड़कर भाग सकते हो । गुलामी पारस्परिक है । तुम भी उससे बंध गए हो । जिसे तुमने बांध लिया । बंधन कभी एकतरफा नहीं होता । अगर तुमने आधिपत्य करना चाहा । तो दिशा नीचे की तरफ शुरू हो गई । जिसे तुम प्रेम करो । उसे मुक्त करना । तुम्हारा प्रेम उसके लिए मुक्ति बने । जितना ही तुम उसे मुक्त करोगे । तुम पाओगे कि तुम मुक्त होते चले जा रहे हो । क्योंकि मुक्ति भी दोधारी तलवार है । तुम जब अपने निकट के लोगों को मुक्त करते हो । तब तुम अपने को भी मुक्त कर रहे हो । क्योंकि जिसे तुमने मुक्त किया । उसके द्वारा तुम्हें गुलाम बनाए जाने का उपाय नष्ट कर दिया तुमने । जो तुम देते हो । वही तुम्हें उत्तर में मिलता है । जब तुम गाली देते हो । तब गालियों की वर्षा हो जाती है । जब तुम फूल देते हो । तब फूल लौट आते हैं । संसार तो प्रतिध्वनि करता है । संसार तो एक दर्पण है । जिसमें तुम्हें अपना ही चेहरा हजार-हजार रूपों में दिखाई पड़ता है ।
जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो । तब तुम भी गुलाम बन रहे हो । प्रेम कारागृह बनने लगा । यह मत सोचना कि दूसरा तुम्हें कारागृह में डालता है । दूसरा तुम्हें कैसे डाल सकता है ? दूसरे की सामर्थ्य क्या ? तुम ही दूसरे को कारागृह में डालते हो । तब तुम कारागृह में पड़ते हो । यह साझेदारी है । तुम उसे गुलाम बनाते हो । वह तुम्हें गुलाम बनाता है । पति पत्नियों को देखो । वे एक दूसरे के गुलाम हो गए हैं । और स्वभावतः जो तुम्हें गुलाम बनाता है । उसे तुम प्रेम कैसे कर पाओगे ? भीतर गहरे में रोष होगा । क्रोध होगा । गहरे में प्रतिशोध का भाव होगा । और वह हजार हजार ढंग से प्रकट होगा । छोटी छोटी बात में प्रकट होगा । क्षुद्र क्षुद्र बातों में पति पत्नियों को तुम लड़ते पाओगे । प्रेमियों को तुम ऐसी क्षुद्र बातों पर लड़ते पाओगे कि यह तुम मान ही नहीं सकते कि इनके जीवन में प्रेम उतरा होगा । प्रेम जैसी महा घटना जहां घटी हो । वहां ऐसी क्षुद्र बातों की कलह उठ सकती है ? यह क्षुद्र बातों की कलह बता रही है कि सीढ़ी नीचे की तरफ लग गई है ।
जब भी तुम किसी पर आधिपत्य करना चाहोगे । तुमने प्रेम की हत्या कर दी । प्रेम का शिशु पैदा भी न हो पाया । गर्भपात हो गया । अभी जन्मा भी न था कि तुमने गर्दन दबा दी ।
प्रेम खिलता है । मुक्ति के आकाश में । प्रेम का जन्म होता है । स्वतंत्रता के परिवेश में । कारागृह में प्रेम का जन्म नहीं होता । वहां तो प्रेम की कब्र बनती है । और जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे । तब तुम धीरे धीरे पाओगे । प्रेम तो न मालूम कहां तिरोहित हो गया । और प्रेम की जगह कुछ बड़ी विकृतियां छूट गईं ।  ईष्या । जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे । तब ईष्या पैदा हो जाएगी ।
प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है । क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है । जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है । अकारण । बेशर्त । तब मंदिर बन जाता है । और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है । वासना की भांति । शोषण और हिंसा की भांति । और ईष्या द्वेष की भांति । आधिपत्य, पजेशन की भांति । तब कारागृह बन जाता है ।
कारागृह का अर्थ है । जिससे तुम बाहर होना चाहो । और हो न सको । कारागृह का अर्थ है । जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए । जो तुम्हें विकास न दे । छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए । और तुम्हें डुबाए । कारागृह का अर्थ है । जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ । मुक्त होने के लिए । और मुक्त न हो सको । द्वार बंद हों । हाथ पैरों पर जंजीरें पड़ी हों । पंख काट दिए गए हों । कारागृह का अर्थ है । जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे ।
मंदिर का अर्थ है । जिसका द्वार खुला हो । जैसे तुम भीतर आए हो । वैसे ही बाहर जाना चाहो । तो कोई प्रतिबंध न हो । कोई पैरों को पकड़े न । भीतर आने के लिए जितनी आजादी थी । उतनी ही बाहर जाने की आजादी हो । मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे । लेकिन बाहर जाने की आजादी सदा मौजूद है । कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे । और द्वार बंद हो गया । और निकलने का मार्ग न रहा ।
मंदिर का अर्थ है । जो तुम्हें अपने से पार ले जाए । जहां से अतिक्रमण हो सके । जो सदा और ऊपर । और ऊपर ले जाने की सुविधा दे । चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो । और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो । लेकिन जैसे जैसे प्रेम गहरा होने लगे । वैसे वैसे शुद्धि बढ़ने लगे । चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो । लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो । प्रेम शरीर का आकर्षण न रहकर । दो मनों के बीच का खिंचाव हो जाए । और यात्रा के अंत अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए । दो आत्माओं का मिलन बन जाए ।
जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके । वह तो मंदिर है । और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके । वह कारागृह है । और प्रेम दोनों हो सकता है । क्योंकि तुम दोनों हो । तुम पशु भी हो । और परमात्मा भी । तुम एक सीढ़ी हो । जिसका एक छोर पशु के पास टिका है । और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है । और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो । या नीचे उतरते हो । सीढ़ी एक ही है । उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है । सिर्फ दिशा बदल जाएगी । जिन सीढ़ियों से चढ़कर तुम मेरे पास आए हो । उन्हीं सीढ़ियों से उतरकर तुम मुझसे दूर भी जाओगे । सीढ़ियां वही होंगी । तुम भी वही होओगे । पैर भी वही होंगे । पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है । वैसे ही जाने में भी उपयोग होगी । सब कुछ वही होगा । सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी । एक दिशा थी । जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं । आकाश की तरफ । और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे । दूसरी दिशा होगी । तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी । नीचाइयों की तरफ । और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे ।
साधारणतः प्रेम तुम्हें पशु में उतार देता है । इसलिए तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं । घृणा से भी इतने नहीं डरते । जितने प्रेम से डरते हैं । शत्रु से भी इतना भय नहीं लगता । जितना मित्र से भय लगता है । क्योंकि शत्रु क्या बिगाड़ लेगा ? शत्रु और तुम में तो बड़ा फासला है । दूरी है । लेकिन मित्र बहुत कुछ बिगाड़ सकता है । और प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नष्ट कर सकता है । क्योंकि तुमने इतने पास आने का अवसर दिया है । प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नीचे उतार सकता है नरकों में । इसलिए प्रेम में लोगों को नरक की पहली झलक मिलती है । इसलिए तो लोग भाग खड़े होते हैं । प्रेम की दुनिया से । भगोड़े बन जाते हैं । सारी दुनिया में धर्मों ने सिखाया है । प्रेम से बचो । कारण क्या होगा ? कारण यही है कि देखा कि 100 में 99 तो प्रेम में सिर्फ डूबते हैं । और नष्ट होते हैं । ओशो ।

नहीं आप कहेंगे बुद्ध हैं महावीर हैं वे गाली नहीं देते

आदमी बहुत सी बातें जानकर भुलाए हुए है । कुछ बातों को वह स्मरण ही नहीं करता । क्योंकि वह स्मरण उसके अहंकार की सारी की सारी अकड़ खींच लेगा । बाहर कर देगा । फिर क्या है हमारा ? छोड़ें जन्म और मृत्यु को । जीवन में ऐसा भृम होता है कि बहुत कुछ हमारा है । लेकिन जितना ही खोजने जाते हैं । पाया जाता है कि नहीं । वह भी हमारा नहीं है ।
आप कहते हैं । किसी से मेरा प्रेम हो गया । बिना यह सोचे हुए कि प्रेम आपका निर्णय है । योर डिसीजन ? नहीं । लेकिन प्रेमी कहते हैं कि हमें पता ही नहीं चला । कब हो गया । इट हैपेन्ड । हो गया । हमने किया नहीं । तो जो हो गया । वह हमारा कैसे हो सकता है ? नहीं होता । तो नहीं होता । हो गया । तो हो गया । बड़े परवश हैं । बड़ी नियति है । सब जैसे कहीं बंधा है ।
लेकिन बंधान कुछ ऐसा है कि जैसे हम एक जानवर को एक रस्सी में बांध दें । एक खूंटी में बांध दें । और जानवर रस्सी की खूंटी में चारों तरफ घूमता रहे । घूमने से भृम पैदा हो कि मैं स्वतंत्र हूं । क्योंकि घूमता हूं । और रस्सी को भुला दे । क्योंकि रस्सी दुखद है । वह जो खूंटी से बंधी हुई रस्सी है । वह बड़ी दुखद है । वह परतंत्रता की खबर लाती है । सच तो यह है कि वह स्वयं के न होने की खबर लाती है । परतंत्र होने योग्य भी हम नहीं हैं । स्वतंत्र होने की तो बात बहुत दूर है । परतंत्र होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए । वह भी हम नहीं हैं । वह जो खूंटी बंधी है । चारों तरफ घूम लेता है जानवर । चूंकि घूम लेता है । कभी बाएं चला जाता है । कभी दाएं चला जाता है । तो सोचता है । स्वतंत्र हूं । और जब स्वतंत्र हूं । तो मैं हूं । फिर धीरे धीरे अपने को समझा लेता होगा कि खूंटी से बंधा हूं । यह भी मेरी मर्जी है । जब चाहूं । तब तोड़ दूं । राजी हो गया हूं । यह भी मेरे हित के लिए है ।
जीवन में हम बहुत सा भृम पैदा करते हैं । कहते हैं क्रोध । कहते हैं प्रेम । कहते हैं घृणा । मित्रता । शत्रुता ।लेकिन कुछ भी तो हमारा निर्णय नहीं है । कभी आपने ऐसा क्रोध किया है । जो आपने किया हो ? कभी नहीं किया । जब क्रोध होता है । तब आप होते ही नहीं । कभी आपने प्रेम किया है । जो आपने किया हो ? अगर आप प्रेम कर सकते । तब तो किसी को भी कर सकते थे । लेकिन किसी को कर पाते हैं । और किसी को नहीं कर पाते । और किसी को कर पाते हैं । तो नहीं चाहते । तो भी करते हैं । और किसी को नहीं कर पाते हैं । तो चाहें । तो भी नहीं कर पाते ।
जिंदगी की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं । जहां से जन्म आता है वहीं से । आप नाहक ही बीच में मालिक बन जाते हैं । और आपने क्या किया है ? क्या है । जो आपका किया हुआ है ? भूख लगती है । नींद आती है । सुबह नींद टूट जाती है । सांझ फिर आंखें बंद होने लगती हैं । बचपन आता है । फिर कब चला जाता है ? फिर कैसे चला जाता है ? न पूछता । न विचार विमर्श लेता । न हम कहें । तो क्षण भर ठहरता । फिर जवानी चली आती है । फिर जवानी विदा हो जाती है । फिर बुढ़ापा आ जाता है । आप कहां हैं ?
नहीं । लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि मैं जवान हूं । मैं बूढ़ा हूं । जैसे कि जवानी कुछ आप पर निर्भर हो । फिर जवानी के अपने अपने फूल हैं । बुढ़ापे के अपने फूल हैं । जो खिलते हैं । वैसे ही खिलते हैं । जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं । गुलाब का पौधा नहीं कह सकता कि मैं गुलाब के फूल खिलाता हूं । क्योंकि यह तभी कह सकता था । जब चमेली के खिला सकता होता । लेकिन चमेली के तो खिला नहीं पाता । चंपा के तो खिला नहीं पाता । मधुकामिनी तो नहीं लगती उस पर । गुलाब ही लगता है । फिर नाहक ही अकड़ है । गुलाब लगता है । चमेली पर चमेली लगती है ।
बचपन में बचपन के फूल खिलते हैं । आप नहीं खिलाते । और अगर बचपन में निर्दोष होते हैं । तो होते हैं । कुछ गुण नहीं । कुछ गौरव नहीं । कुछ यश मत ले लेना उससे । बचपन में सरलता होती है । तो होती है । और जवानी में अगर काम और वासना पकड़ लेती है । तो वैसे ही पकड़ लेती है । जैसे बचपन में निर्दोषता पकड़ लेती है । न उसके आप मालिक होते हैं । न जवानी में कामवासना के आप मालिक होते हैं । और अगर बुढ़ापे में मन बृह्मचर्य की तरफ झुकने लगता है । तो कुछ अपना गौरव मत समझ लेना । वैसे ही । ठीक वैसे ही । जैसे जवानी में काम पकड़ लेता है । बुढ़ापे में काम से विरक्ति पकड़ लेती है । और जिसको नहीं पकड़ती है । उसका भी कुछ वश नहीं है । और जिसको पकड़ लेती है । वह भी नाहक का गौरव न ले ।
मैं को खड़े होने की जगह नहीं है । अगर जीवन को एक एक कण कण सोचेंगे । तो पाएंगे । मैं को खड़े होने की जगह नहीं है । लेकिन भृम पैदा हम क्यों कर लेते हैं ? कैसे यह इलूजन पैदा होता है ? यह डिसेप्शन । यह प्रवंचना आती कहां से है ?
यह आती इसलिए है कि हमें पूरे वक्त ऐसा लगता है कि विकल्प हैं । आल्टरनेटिव हैं । जैसे आपने मुझे गाली दी । तो मेरे सामने दो विकल्प हैं कि चाहूं । तो मैं गाली का जवाब दूं । और चाहूं । तो न दूं । ऐसा मुझे लगता है । है नहीं । ऐसा मुझे लगता है कि चाहूं । तो जवाब दूं । और चाहूं । तो जवाब न दूं । लेकिन क्या सच में ही विकल्प होते हैं ? क्या जो आदमी गाली के उत्तर में गाली देता है । वह चाहता । तो न देता ? आप कहेंगे कि चाहता । तो नहीं दे सकता था ।
लेकिन थोड़ा और गहरे जाना पड़ेगा । वह चाह भी आप में होती है कि आप ले आते हैं ? गाली देने की चाह । या न देने की चाह । वह भी आपके वश में है ? नहीं । जो बहुत गहरे खोजते हैं । वे कहते हैं कि कहीं तो हमें पता चलता है कि चीजें हमारे वश के बाहर हो जाती हैं । एक आदमी को खयाल आता है कि गाली दूं । गाली देता है । एक आदमी को खयाल आता है । नहीं दूं । नहीं देता है । लेकिन यह खयाल कि दूं । या नहीं दूं । यह खयाल । कहां से आता है ? यह खयाल आपका है ? यह वहीं से आता है । जहां से जन्म । यह वहीं से आता है । जहां से प्रेम । यह वहीं से आता है । जहां से प्राण । यह वहीं खो जाता है । जहां मौत । यह वहीं लीन हो जाता है । जहां जाती हुई श्वास । लेकिन धोखा देने की सुविधा हो जाती है कि मेरे हाथ में है । चाहता । तो गाली न देता । लेकिन किसने कहा था कि आप दें ?
नहीं । आप कहेंगे । बुद्ध हैं । महावीर हैं । वे गाली नहीं देते ।
क्या आप समझते हैं कि वे चाहें तो गाली दे सकते हैं ? नहीं । जैसे आप गाली देने में बंधा हुआ अनुभव करते हैं । उससे कम बंधा हुआ बुद्ध और महावीर अनुभव नहीं करते हैं । न गाली देने में । चाहें । तो भी दे नहीं सकते । नहीं । वह चाह पैदा ही नहीं होती ।
दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं । एक धर्म के लोग । दूसरे धर्म के लोग हो गए । कभी समझाने बुझाने से हुए । कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए । लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा । हिंदू मुसलमान हो जाए । तो वैसे का वैसा आदमी रहता है । मुसलमान ईसाई हो जाए । तो वैसा का वैसा आदमी रहता है । कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से ।
राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं । एक सत्ताधारी बदल गया । दूसरा बैठ गया । कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है । वह बदल गया । तो जो पास की जमीन पर रहता है । वह बैठ गया । किसी की चमड़ी गोरी थी । वह हट गया । तो किसी की चमड़ी काली थी । वह बैठ गया । लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है ।
आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं । दुनिया में । मजदूर बैठ गए । पूंजीपति हट गए । लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया । पूंजीवाद चला गया । तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए । वे उतने ही दुष्ट । उतने ही खतरनाक । कोई फर्क नहीं पड़ा । वर्ग बने रहे । पहले वर्ग था । जिसके पास धन है - वह । और जिसके पास धन नहीं है - वह । अब वर्ग हो गया । जिसमें धन वितरित किया जाता है - वह । और जो धन वितरित करता है - वह । जिसके पास ताकत है । स्टेट में जो है वह । राज्य में जो है वह । और राज्यहीन जो है वह । नया वर्ग बन गया । लेकिन वर्ग कायम रहा ।
अब तक इन पांच - छह हजार वर्षों में जितने प्रयोग हुए हैं । मनुष्य के लिए । कल्याण के लिए । सब असफल हो गए । अभी तक एक प्रयोग नहीं हुआ है । वह है शिक्षा में क्रांति । वह प्रयोग शिक्षक के ऊपर है कि वह करे । और मुझे लगता है । यह सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है । शिक्षा में क्रांति सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है । राजनीतिक । आर्थिक । या धार्मिक कोई क्रांति का इतना मूल्य नहीं है । जितना शिक्षा में क्रांति का मूल्य है । लेकिन शिक्षा में क्रांति कौन करेगा ? वे विद्रोही लोग कर सकते हैं । जो सोचें । विचार करें । हम यह क्या कर रहे हैं । और इतना तय समझ लें कि जो भी आप कर रहे हैं । वह जरूर गलत है । क्योंकि उसका परिणाम गलत है । यह जो मनुष्य पैदा हो रहा है । यह जो समाज बन रहा है । यह जो युद्ध हो रहे हैं । यह जो सारी हिंसा चल रही है । यह जो सफरिंग इतनी दुनिया में है । इतनी पीड़ा । इतनी दीनता । दरिद्रता है । यह कहां से आ रही है । यह जरूर हम जो शिक्षा दे रहे हैं । उसमें कुछ बुनियादी भूलें हैं । तो यह विचार करें । जागें । लेकिन आप तो कुछ और हिसाब में पड़े रहते होंगे । ओशो ।
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