सोमवार, नवंबर 21, 2011

नहीं आप कहेंगे बुद्ध हैं महावीर हैं वे गाली नहीं देते

आदमी बहुत सी बातें जानकर भुलाए हुए है । कुछ बातों को वह स्मरण ही नहीं करता । क्योंकि वह स्मरण उसके अहंकार की सारी की सारी अकड़ खींच लेगा । बाहर कर देगा । फिर क्या है हमारा ? छोड़ें जन्म और मृत्यु को । जीवन में ऐसा भृम होता है कि बहुत कुछ हमारा है । लेकिन जितना ही खोजने जाते हैं । पाया जाता है कि नहीं । वह भी हमारा नहीं है ।
आप कहते हैं । किसी से मेरा प्रेम हो गया । बिना यह सोचे हुए कि प्रेम आपका निर्णय है । योर डिसीजन ? नहीं । लेकिन प्रेमी कहते हैं कि हमें पता ही नहीं चला । कब हो गया । इट हैपेन्ड । हो गया । हमने किया नहीं । तो जो हो गया । वह हमारा कैसे हो सकता है ? नहीं होता । तो नहीं होता । हो गया । तो हो गया । बड़े परवश हैं । बड़ी नियति है । सब जैसे कहीं बंधा है ।
लेकिन बंधान कुछ ऐसा है कि जैसे हम एक जानवर को एक रस्सी में बांध दें । एक खूंटी में बांध दें । और जानवर रस्सी की खूंटी में चारों तरफ घूमता रहे । घूमने से भृम पैदा हो कि मैं स्वतंत्र हूं । क्योंकि घूमता हूं । और रस्सी को भुला दे । क्योंकि रस्सी दुखद है । वह जो खूंटी से बंधी हुई रस्सी है । वह बड़ी दुखद है । वह परतंत्रता की खबर लाती है । सच तो यह है कि वह स्वयं के न होने की खबर लाती है । परतंत्र होने योग्य भी हम नहीं हैं । स्वतंत्र होने की तो बात बहुत दूर है । परतंत्र होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए । वह भी हम नहीं हैं । वह जो खूंटी बंधी है । चारों तरफ घूम लेता है जानवर । चूंकि घूम लेता है । कभी बाएं चला जाता है । कभी दाएं चला जाता है । तो सोचता है । स्वतंत्र हूं । और जब स्वतंत्र हूं । तो मैं हूं । फिर धीरे धीरे अपने को समझा लेता होगा कि खूंटी से बंधा हूं । यह भी मेरी मर्जी है । जब चाहूं । तब तोड़ दूं । राजी हो गया हूं । यह भी मेरे हित के लिए है ।
जीवन में हम बहुत सा भृम पैदा करते हैं । कहते हैं क्रोध । कहते हैं प्रेम । कहते हैं घृणा । मित्रता । शत्रुता ।लेकिन कुछ भी तो हमारा निर्णय नहीं है । कभी आपने ऐसा क्रोध किया है । जो आपने किया हो ? कभी नहीं किया । जब क्रोध होता है । तब आप होते ही नहीं । कभी आपने प्रेम किया है । जो आपने किया हो ? अगर आप प्रेम कर सकते । तब तो किसी को भी कर सकते थे । लेकिन किसी को कर पाते हैं । और किसी को नहीं कर पाते । और किसी को कर पाते हैं । तो नहीं चाहते । तो भी करते हैं । और किसी को नहीं कर पाते हैं । तो चाहें । तो भी नहीं कर पाते ।
जिंदगी की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं । जहां से जन्म आता है वहीं से । आप नाहक ही बीच में मालिक बन जाते हैं । और आपने क्या किया है ? क्या है । जो आपका किया हुआ है ? भूख लगती है । नींद आती है । सुबह नींद टूट जाती है । सांझ फिर आंखें बंद होने लगती हैं । बचपन आता है । फिर कब चला जाता है ? फिर कैसे चला जाता है ? न पूछता । न विचार विमर्श लेता । न हम कहें । तो क्षण भर ठहरता । फिर जवानी चली आती है । फिर जवानी विदा हो जाती है । फिर बुढ़ापा आ जाता है । आप कहां हैं ?
नहीं । लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि मैं जवान हूं । मैं बूढ़ा हूं । जैसे कि जवानी कुछ आप पर निर्भर हो । फिर जवानी के अपने अपने फूल हैं । बुढ़ापे के अपने फूल हैं । जो खिलते हैं । वैसे ही खिलते हैं । जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं । गुलाब का पौधा नहीं कह सकता कि मैं गुलाब के फूल खिलाता हूं । क्योंकि यह तभी कह सकता था । जब चमेली के खिला सकता होता । लेकिन चमेली के तो खिला नहीं पाता । चंपा के तो खिला नहीं पाता । मधुकामिनी तो नहीं लगती उस पर । गुलाब ही लगता है । फिर नाहक ही अकड़ है । गुलाब लगता है । चमेली पर चमेली लगती है ।
बचपन में बचपन के फूल खिलते हैं । आप नहीं खिलाते । और अगर बचपन में निर्दोष होते हैं । तो होते हैं । कुछ गुण नहीं । कुछ गौरव नहीं । कुछ यश मत ले लेना उससे । बचपन में सरलता होती है । तो होती है । और जवानी में अगर काम और वासना पकड़ लेती है । तो वैसे ही पकड़ लेती है । जैसे बचपन में निर्दोषता पकड़ लेती है । न उसके आप मालिक होते हैं । न जवानी में कामवासना के आप मालिक होते हैं । और अगर बुढ़ापे में मन बृह्मचर्य की तरफ झुकने लगता है । तो कुछ अपना गौरव मत समझ लेना । वैसे ही । ठीक वैसे ही । जैसे जवानी में काम पकड़ लेता है । बुढ़ापे में काम से विरक्ति पकड़ लेती है । और जिसको नहीं पकड़ती है । उसका भी कुछ वश नहीं है । और जिसको पकड़ लेती है । वह भी नाहक का गौरव न ले ।
मैं को खड़े होने की जगह नहीं है । अगर जीवन को एक एक कण कण सोचेंगे । तो पाएंगे । मैं को खड़े होने की जगह नहीं है । लेकिन भृम पैदा हम क्यों कर लेते हैं ? कैसे यह इलूजन पैदा होता है ? यह डिसेप्शन । यह प्रवंचना आती कहां से है ?
यह आती इसलिए है कि हमें पूरे वक्त ऐसा लगता है कि विकल्प हैं । आल्टरनेटिव हैं । जैसे आपने मुझे गाली दी । तो मेरे सामने दो विकल्प हैं कि चाहूं । तो मैं गाली का जवाब दूं । और चाहूं । तो न दूं । ऐसा मुझे लगता है । है नहीं । ऐसा मुझे लगता है कि चाहूं । तो जवाब दूं । और चाहूं । तो जवाब न दूं । लेकिन क्या सच में ही विकल्प होते हैं ? क्या जो आदमी गाली के उत्तर में गाली देता है । वह चाहता । तो न देता ? आप कहेंगे कि चाहता । तो नहीं दे सकता था ।
लेकिन थोड़ा और गहरे जाना पड़ेगा । वह चाह भी आप में होती है कि आप ले आते हैं ? गाली देने की चाह । या न देने की चाह । वह भी आपके वश में है ? नहीं । जो बहुत गहरे खोजते हैं । वे कहते हैं कि कहीं तो हमें पता चलता है कि चीजें हमारे वश के बाहर हो जाती हैं । एक आदमी को खयाल आता है कि गाली दूं । गाली देता है । एक आदमी को खयाल आता है । नहीं दूं । नहीं देता है । लेकिन यह खयाल कि दूं । या नहीं दूं । यह खयाल । कहां से आता है ? यह खयाल आपका है ? यह वहीं से आता है । जहां से जन्म । यह वहीं से आता है । जहां से प्रेम । यह वहीं से आता है । जहां से प्राण । यह वहीं खो जाता है । जहां मौत । यह वहीं लीन हो जाता है । जहां जाती हुई श्वास । लेकिन धोखा देने की सुविधा हो जाती है कि मेरे हाथ में है । चाहता । तो गाली न देता । लेकिन किसने कहा था कि आप दें ?
नहीं । आप कहेंगे । बुद्ध हैं । महावीर हैं । वे गाली नहीं देते ।
क्या आप समझते हैं कि वे चाहें तो गाली दे सकते हैं ? नहीं । जैसे आप गाली देने में बंधा हुआ अनुभव करते हैं । उससे कम बंधा हुआ बुद्ध और महावीर अनुभव नहीं करते हैं । न गाली देने में । चाहें । तो भी दे नहीं सकते । नहीं । वह चाह पैदा ही नहीं होती ।
दुनिया में अब तक धार्मिक क्रांतियां हुई हैं । एक धर्म के लोग । दूसरे धर्म के लोग हो गए । कभी समझाने बुझाने से हुए । कभी तलवार छाती पर रखने से हो गए । लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा । हिंदू मुसलमान हो जाए । तो वैसे का वैसा आदमी रहता है । मुसलमान ईसाई हो जाए । तो वैसा का वैसा आदमी रहता है । कोई फर्क नहीं पड़ा धार्मिक क्रांतियों से ।
राजनैतिक क्रांतियां हुई हैं । एक सत्ताधारी बदल गया । दूसरा बैठ गया । कोई जरा दूर की जमीन पर रहता है । वह बदल गया । तो जो पास की जमीन पर रहता है । वह बैठ गया । किसी की चमड़ी गोरी थी । वह हट गया । तो किसी की चमड़ी काली थी । वह बैठ गया । लेकिन भीतर का सत्ताधारी वही का वही है ।
आर्थिक क्रांतियां हो गई हैं । दुनिया में । मजदूर बैठ गए । पूंजीपति हट गए । लेकिन बैठने से मजदूर पूंजीपति हो गया । पूंजीवाद चला गया । तो उसकी जगह मैनेजर्स आ गए । वे उतने ही दुष्ट । उतने ही खतरनाक । कोई फर्क नहीं पड़ा । वर्ग बने रहे । पहले वर्ग था । जिसके पास धन है - वह । और जिसके पास धन नहीं है - वह । अब वर्ग हो गया । जिसमें धन वितरित किया जाता है - वह । और जो धन वितरित करता है - वह । जिसके पास ताकत है । स्टेट में जो है वह । राज्य में जो है वह । और राज्यहीन जो है वह । नया वर्ग बन गया । लेकिन वर्ग कायम रहा ।
अब तक इन पांच - छह हजार वर्षों में जितने प्रयोग हुए हैं । मनुष्य के लिए । कल्याण के लिए । सब असफल हो गए । अभी तक एक प्रयोग नहीं हुआ है । वह है शिक्षा में क्रांति । वह प्रयोग शिक्षक के ऊपर है कि वह करे । और मुझे लगता है । यह सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है । शिक्षा में क्रांति सबसे बड़ी क्रांति हो सकती है । राजनीतिक । आर्थिक । या धार्मिक कोई क्रांति का इतना मूल्य नहीं है । जितना शिक्षा में क्रांति का मूल्य है । लेकिन शिक्षा में क्रांति कौन करेगा ? वे विद्रोही लोग कर सकते हैं । जो सोचें । विचार करें । हम यह क्या कर रहे हैं । और इतना तय समझ लें कि जो भी आप कर रहे हैं । वह जरूर गलत है । क्योंकि उसका परिणाम गलत है । यह जो मनुष्य पैदा हो रहा है । यह जो समाज बन रहा है । यह जो युद्ध हो रहे हैं । यह जो सारी हिंसा चल रही है । यह जो सफरिंग इतनी दुनिया में है । इतनी पीड़ा । इतनी दीनता । दरिद्रता है । यह कहां से आ रही है । यह जरूर हम जो शिक्षा दे रहे हैं । उसमें कुछ बुनियादी भूलें हैं । तो यह विचार करें । जागें । लेकिन आप तो कुछ और हिसाब में पड़े रहते होंगे । ओशो ।

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