सोमवार, नवंबर 21, 2011

इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है

प्यारे ओशो ! जब तन्का द्वारा बुद्ध की काष्ठ मूर्ति को जलाए जाने की घटना के बारे में तेन्जिक से पूछा गया । तो उसने उत्तर दिया - जब शीत अधिक होती है । तो हम चूल्हे की आग के चारों ओर इकट्ठे हो जाते हैं । क्या वह गलत था । अथवा नहीं ?  भिक्षु ने जोर देकर पूछा
तेन्जीकू ने कहा - जब गर्मी लगती है । तो हम घाटी के बांसवन में जाकर बैठ जाते हैं । मूर्ति के जला देने के दूसरे दिन । तन्का तेनिन । झेन सदगुरु नान यो से भेंट करने गया । जो कभी झेन सदगुरुओं के सम्राट ईनो का शिष्य रहा था । जब तन्का । झाझेन ध्यान में बैठने के लिए । अपने कंबल की तह खोलने लगा । तो नान-यो ने कहा - उसके खोलने की कोई आवश्यकता नहीं है । तन्का कुछ कदम पीछे हटा ।
नान-यो ने कहा - यह बिलकुल ठीक है । इस पर तन्का कुछ कदम आगे बढ़ा । नान-यो ने कहा - यह ठीक नहीं है । तन्का ने नान-यो के चारों ओर घूम कर एक परिक्रमा की । और वहां से चला गया । नान-यो ने टिप्पणी करते हुए कहा - पुराने सुनहरे दिन अब विदा हो गए हैं । और अब लोग कितने अधिक आलसी हो गए हैं । आज से 30 वर्ष बाद । इस व्यक्ति को रोक पाना बहुत कठिन होगा ।  मित्रो ! झेन मैनिफेस्टो अर्थात झेन के उदघोष के लिए । आज का समय बिलकुल परिपक्व है । पश्चिम के बुद्धिजीवी अब झेन से भलीभांति परिचित हो चुके हैं । वे लोग झेन से प्रेम करने लगे हैं । लेकिन वे अभी भी झेन तक पहुंचने का प्रयास बुद्धि से कर रहे हैं । वे अभी तक यह नहीं समझ सके हैं कि झेन का बुद्धि के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है । उसका एक बहुत बड़ा कार्य है । तुम्हें बुद्धि के कारागृह से मुक्त करना । यह कोई बुद्धिगत दर्शन शास्त्र नहीं है । यह दर्शन शास्त्र है ही नहीं । और न यह कोई धर्म ही है । क्योंकि इसके पास न तो काल्पनिक कथाएं हैं । न झूठे व्याख्यान हैं । और न उसके पास देने के लिए कोई झूठे आश्वासन हैं । यह तो एक सिंह गर्जना है । और सबसे बड़ी बात तो यह है कि झेन इस संसार में स्वयं से ही मुक्त होने का उदघोष लेकर आया है ।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते । ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।
ॐ वह पूर्ण है । और यह भी पूर्ण है । क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है । तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है । ॐ शांति, शांति, शांति ।
यह महा वाक्य कई अर्थों में अनूठा है । एक तो इस अर्थ में कि ईशावास्य उपनिषद इस महावाक्य पर शुरू भी होता है । और पूरा भी । जो भी कहा जाने वाला है । जो भी कहा जा सकता है । वह इस सूत्र में पूरा आ गया है । जो समझ सकते हैं । उनके लिए ईशावास्य आगे पढ़ने की कोई भी जरूरत नहीं है । जो नहीं समझ सकते हैं । शेष पुस्तक उनके लिए ही कही गई है ।
इसीलिए साधारणतः ॐ शांतिः शांतिः शांतिः का पाठ । जो कि पुस्तक के अंत में होता है । इस पहले वचन के ही अंत में है । जो जानते हैं । उनके हिसाब से बात पूरी हो गई है । जो नहीं जानते हैं । उनके लिए सिर्फ शुरू होती है ।
इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है कि पूरब और पश्चिम के सोचने के ढंग का भेद इस महा वाक्य से स्पष्ट होता है । दो तरह के तर्क । दो तरह की लाजिक सिस्टम्स विकसित हुई हैं दुनिया में । एक यूनान में । एक भारत में ।
यूनान में जो तर्क की पद्धति विकसित हुई । उससे पश्चिम के सारे विज्ञान का जन्म हुआ । और भारत में जो विचार की पद्धति विकसित हुई । उससे धर्म का जन्म हुआ । दोनों में कुछ बुनियादी भेद हैं । और सबसे पहला भेद यह है कि पश्चिम में । यूनान ने जो तर्क की पद्धति विकसित की । उसकी समझ है कि निष्कर्ष, कनक्लूजन हमेशा अंत में मिलता है । साधारणतः ठीक मालूम होगी बात । हम खोजेंगे सत्य को । खोज पहले होगी । विधि पहले होगी । प्रक्रिया पहले होगी । निष्कर्ष तो अंत में हाथ आएगा । इसलिए यूनानी चिंतन पहले सोचेगा । खोजेगा । अंत में निष्कर्ष देगा ।
भारत ठीक उलटा सोचता है । भारत कहता है । जिसे हम खोजने जा रहे हैं । वह सदा से मौजूद है । वह हमारी खोज के बाद में प्रगट नहीं होता । हमारे खोज के पहले भी मौजूद है । जिस सत्य का उदघाटन होगा । वह सत्य । हम नहीं थे । तब भी था । हमने जब नहीं खोजा था । तब भी था । हम जब नहीं जानते थे । तब भी उतना ही था । जितना जब हम जान लेंगे । तब होगा । खोज से सत्य सिर्फ हमारे अनुभव में प्रगट होता है । सत्य निर्मित नहीं होता । सत्य हमसे पहले मौजूद है । इसलिए भारतीय तर्कणा पहले निष्कर्ष को बोल देती है । फिर प्रक्रिया की बात करती है । दि कनक्लूजन फर्स्ट । देन दि मैथडलाजी एंड दि प्रोसेस । पहले निष्कर्ष । फिर प्रक्रिया । यूनान में पहले प्रक्रिया । फिर खोज । फिर निष्कर्ष । 

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