सोमवार, नवंबर 21, 2011

खाओ पीओ और मौज करो बस यही 1 मात्र धर्म है

मनुष्य का इतिहास 1 अत्यंत दुखद घटना रहा है । और इसके दुखद होने का कारण समझना । बहुत कठिन नहीं है । उसे खोजने के लिए तुम्हें । ज्यादा दूर जाना न पड़ेगा । वह प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद है ।
मनुष्य के पूरे अतीत ने । मनुष्य में 1 विभाजन पैदा कर दिया है । हर आदमी के भीतर निरंतर 1 शीत युद्ध चल रहा है । यदि तुम्हें बेचैनी का अनुभव होता है । तो उसका कारण व्यक्तिगत नहीं है । तुम्हारी बीमारी सामाजिक है । और जिस चालाकी से भरी तरकीब का उपयोग किया गया है । वह है । तुम्हें दुश्मनों के 2 खेमों में बांटना । 1 भौतिकवादी 2 अध्यात्मवादी । 1 जोरबा  2 बुद्ध ।
वस्तुतः तुम बंटे हुए नहीं हो । वास्तविकता यह है कि तुम अखंड हो । 1 स्वर में । 1 लय में आबद्ध । लेकिन तुम्हारे मन में यह संस्कार गहरा बैठा है कि तुम 1 नहीं हो । अखंड नहीं हो । पूर्ण नहीं हो । तुम्हें अपने शरीर के खिलाफ लड़ना होगा । यदि आध्यात्मिक होना चाहते हो । तो तुम्हें अपने body को हर संभव तरीके से जीतना पड़ेगा । उसे हराना पड़ेगा । उसे सताना और नष्ट करना पड़ेगा ।
पूरी दुनिया में यह धारणा स्वीकृत रही है । विभिन्न धर्मों में । विभिन्न संस्कृतियों में । उसके रंग रूप । भिन्न भिन्न हो सकते हैं । किंतु आधारभूत सिद्धांत वही है । मनुष्य को विभाजित करो । उसमें संघर्ष पैदा करो । जिससे 1 हिस्सा श्रेष्ठ अनुभव करने लगे । पवित्र बन जाए । पुण्यात्मा बन जाये । और दूसरे हिस्से की पापी की तरह निंदा करना शुरू कर दे ।
मगर कठिनाई यह है कि तुम 1 हो । तुम्हें खंडित करने का कोई उपाय नहीं है । हर विभाजन तुम में दुख पैदा करने वाला है । विभाजन का अर्थ होगा कि तुम्हारी आत्मा का आधा भाग । दूसरे आधे भाग से लड़ रहा है । और यदि तुम स्वयं के भीतर लड़ रहे हो । तो कैसे विश्राम को उपलब्ध होओगे ?
पूरी की पूरी मनुष्यता । अब तक स्किजोफ्रेनिक ढंग से । खंडित मानसिकता में जीती रही है । प्रत्येक व्यक्ति टुकड़ों में । खंडों में तोड़ दिया गया है । तुम्हारे धर्म । तुम्हारे दर्शनशास्त्र । तुम्हारे सिद्धांत । घाव भरने वाले नहीं । वरन घाव करने के साधन रहे हैं । वे अंतर्युद्ध । और संघर्ष के कारण रहे हैं । तुम खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते रहे हो । तुम्हारा दायां हाथ । बाएं हाथ को चोट पहुंचाता है । बायां हाथ । दाएं हाथ को घायल करता है । और अंतत: तुम्हारे दोनों हाथ लहूलुहान हो जाते हैं ।
पश्चिम ने चार्वाक को चुना । जोरबा को चुना । विक्षिप्तता से बचने का दूसरा रास्ता न था । 1 हिस्से को पूर्णतः नष्ट करना पड़ा । पश्चिम ने मनुष्य के आंतरिक सत्य को । उसकी चेतना को अस्वीकार कर दिया । आदमी केवल body है । कहीं कोई soul नहीं है । खाओ । पीओ । और मौज करो । बस यही 1 मात्र धर्म है । यह मन की शांति पाने का 1 उपाय था । संघर्ष से बाहर आने का । 1 निर्णय और निष्कर्ष पर पहुंचने का । क्योंकि यह स्वीकृत हो गया कि तुम 1 हो । केवल matter । केवल body ।
ऊपर ऊपर से देखो । तो ऐसा लगता है कि पूरब और पश्चिम अलग अलग चीजें कर रहे हैं । किंतु गहराई से समझो । तो वे 1 ही चीज कर रहे हैं । सचाई यह है कि वे 1 होने का बौद्धिक रूप से प्रयास कर रहे हैं । क्योंकि 2 होने का मतलब है । निरंतर बेचैनी में । सतत संघर्ष में होना । इससे बेहतर है कि - दूसरे का ख्याल ही भूल जाओ ।
इसी संदर्भ में । तुम्हें यह स्मरण दिलाना महत्वपूर्ण होगा कि आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि matter का होना 1 भ्रम है । पदार्थ का अस्तित्व नहीं है । वह केवल दिखाई देता है । वे इस निष्पत्ति पर 1 बिलकुल भिन्न मार्ग से पहुंचे हैं । पदार्थ का सूक्ष्म अन्वेषण करते हुए उन्होंने पाया कि जैसे जैसे पदार्थ में गहरे जाते हैं । वैसे वैसे उसकी भौतिकता । उसका पदार्थ पन कम से कम होता जाता है । और परमाणु के बाद 1 ऐसा बिंदु आता है । जहां कोई पदार्थ नहीं बचता । सिर्फ इलेक्ट्रॉन रह जाते हैं । जो विद्युत कण हैं । वे पदार्थ नहीं । सिर्फ ऊर्जा तरंगें हैं ।
पश्चिमी प्रतिभा को केवल matter के साथ काम करने की छूट थी । east में प्रतिभा के लिए । पहली चुनौती थी - अंतर्यात्रा । सिर्फ द्वितीय श्रेणी के लोगों ने । मध्यम कोटि के लोगों ने । बाहरी सांसारिक चीजों के लिए श्रम किया । जो वास्तव में बुद्धिमान थे । उन्होंने सदा ध्यान की दिशा में गति की ।
धीरे धीरे दूरी बढ़ती गई । पश्चिम भौतिकवादी हो गया । इसकी पूरी जिम्मेवारी ईसाई church की है । और पूर्वीय मनुष्यता अधिक से अधिक अध्यात्मवादी हो गई । प्रत्येक व्यक्ति में जो विभाजन । जो विखंडन किया गया था । वही विस्तृत पैमाने पर पूरब और पश्चिम का विभाजन बन गया ।
1 महान कवि ने लिखा है । पूरब पूरब है । और पश्चिम पश्चिम है । और दोनों कभी नहीं मिलेंगे । और इस कवि रुडयार्ड किपलिंग की पूरब में अत्यधिक रुचि थी । वह कई वर्षों तक india में रहा । वह सरकारी नौकरी में था । पर इस भेद को देखकर कि संपूर्ण पूर्वीय चेतना भीतर गति करती है । और पश्चिमी चेतना बहिर्मुखी है । वे कैसे मिल सकते हैं ?
मेरा पूरा काम रुडयार्ड किपलिंग को गलत सिद्ध करना है । मैं कहना चाहूंगा कि न पश्चिम पश्चिम है । न पूरब पूरब है । वे दोनों पहले से ही मिले हुए हैं । न कोई पूरब है । न कोई पश्चिम है । उनके दृष्टिकोण बहुत भिन्न रहे । लेकिन वे समझे जा सकते हैं ।
मेरी दृष्टि यह है । मेरा सारा प्रयास यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर 1 सेतु निर्मित हो । ताकि तुम 1 हो जाओ । पूर्ण हो जाओ । body से दुश्मनी न करो । वह तुम्हारा घर है । अपनी soul से शत्रुता न साधो । क्योंकि बिना चेतना के हो सकता है । तुम्हारा घर खूब सजा धजा हो । पर वह खाली मकान होगा । बिना मालिक के सूना । body और soul जब साथ साथ हों । तो 1 सौंदर्य पैदा होता है । 1 पूर्ण जीवन । 1 भरा पूरा जीवन ।
प्रतीक रूप में मैंने body के लिए जोरबा को और soul के लिए बुद्ध को चुना है । चाहे मैं जोरबा के विषय में कहूं । या बुद्ध के बारे में बोलूं । मेरे प्रत्येक वक्तव्य में । वे दोनों ही स्वतः समाहित हो जाते हैं । क्योंकि मेरे लिए वे अभिन्न हैं । यह सिर्फ बल देने की बात है कि किस पर ज्यादा जोर देना है ।
जोरबा केवल शुरुआत है । यदि तुम अपने जोरबा को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त होने की स्वीकृति देते हो । तो तुम्हें कुछ बेहतर । कुछ उच्चतर । कुछ महत्तर । सोचने के लिए बाध्य होना पड़ेगा । वह मात्र वैचारिक चिंतन से पैदा नहीं हो सकता । वह तुम्हारे अनुभव से जन्मेगा । क्योंकि वे छोटे छोटे । क्षुद्र अनुभव । उकताने वाले हो जाएंगे । गौतम बुद्ध स्वयं इसीलिए बुद्ध हो पाए । क्योंकि वे जोरबा की जिंदगी खूब अच्छी तरह जी चुके थे । पूरब ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि 29 वर्षों तक बुद्ध इस तरह जीए । जैसा कोई जोरबा कभी न जीया होगा ।
बुद्ध के father ने पूरे राज्य की सारी सुंदर लड़कियों को एकत्रित करके बुद्ध के भोगविलास की व्यवस्था की थी । उन्होंने भिन्न भिन्न ऋतुओं के लिए । अलग अलग जगहों पर । 3 शानदार महल बनवाए । उनके पास सुंदर बाग बगीचे और झीलें थीं । बुद्ध का पूरा जीवन सुख सुविधा संपन्न था । शुद्ध भोग विलास था  । पर उससे वे उकता गए । और यह प्रश्न उनके मन में महत्वपूर्ण होने लगा कि क्या यही सब कुछ है ? फिर मैं कल के लिए क्यों जिये जा रहा हूं । जीवन का कुछ अर्थ । कुछ और अभिप्राय होना चाहिए । अन्यथा जीवन सारहीन है ।
बुद्धत्व की खोज प्रारंभ होती है । जोरबा को भरपूर जी लेने से । हर आदमी बुद्ध नहीं हो पाता । उसका मूल कारण है कि जोरबा अनजीया रह जाता है । मेरा तर्क देखते हो न । मैं कहता हूं कि जोरबा को जी भर के । पूर्णता से जी लो । तो तुम स्वाभाविक ढंग से । बुद्ध के जीवन में प्रवेश कर जाओगे ।
अपने body का सुख लो । अपने पार्थिव अस्तित्व को भोगो । इसमें कोई पाप नहीं है । इसके पर्दे में । इसके पीछे छिपा है । तुम्हारा आध्यात्मिक विकास । तुम्हारा आत्मिक आनंद । जब तुम भौतिक सुखों से थक जाओगे । केवल तब तुम पूछोगे । क्या इसके अतिरिक्त कुछ और भी है ? स्मरण रहे । यह प्रश्न मात्र बुद्धिगत नहीं हो सकता । इसे अस्तित्वगत होना पड़ेगा । क्या कुछ और भी है ? जब यह प्रश्न अस्तित्वगत होगा । तभी तुम अपने भीतर वह कुछ और उपलब्ध कर पाओगे ।
निश्चित ही बहुत कुछ और भी है  । जोरबा तो केवल शुरुआत है । 1 बार बुद्धत्व की ज्योति जल जाए । जागरण की आभा तुम्हारी आत्मा पर फैल जाए । तब तुम जानोगे कि सांसारिक सुख छाया भी न था । वहां इतना अधिक आनंद है । परमानंद  । लेकिन वह आनंद सुख के विपरीत नहीं है । वस्तुतः वह सुख ही है । जो तुम्हें इस आनंद तक ले आया है । जोरबा और बुद्ध के बीच में कोई संघर्ष नहीं है । कोई झगड़ा नहीं है । जोरबा तीर का निशान है । 1 संकेत चीन है । यदि तुम उस दिशा में ठीक से अनुसरण करो । तो बुद्ध तक पहुंच जाओगे । ओशो । बियांड एनलाइटनमेंट । 

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