सोमवार, नवंबर 21, 2011

इसलिये तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं

प्रेम की कुछ भूल नहीं है । डूबने वालों की भूल है । और मैं तुमसे कहता हूं । जो प्रेम में नरक में उतर जाते थे । वे प्रार्थना से भी नरक में ही उतरेंगे । क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही एक रूप है । और जो घर में प्रेम की सीढ़ी से नीचे उतरते थे । वे आश्रम में भी प्रार्थना की सीढ़ी से नीचे ही उतरेंगे । असली सवाल सीढ़ी को बदलने का नहीं है । न सीढ़ी से भाग जाने का है । असली सवाल तो खुद की दिशा को बदलने का है ।
तो मैं तुमसे नहीं कहता हूं कि तुम संसार को छोड़कर भाग जाना । क्योंकि भागने वाले कुछ नहीं पाते । सीढ़ी को छोड़कर जो भाग गया । एक बात पक्की है कि वह नरक में नहीं उतर सकेगा । लेकिन दूसरी बात भी पक्की है कि - स्वर्ग में कैसे उठेगा ? तुम खतरे में जीते हो । संन्यासी सुरक्षा में । नरक में जाने का उसका उपाय उसने बंद कर दिया । लेकिन साथ ही स्वर्ग जाने का उपाय भी बंद हो गया । क्योंकि वे एक ही सीढ़ी के दो नाम हैं । संन्यासी जो भाग गया है । संसार से । वह तुम्हारे जैसे दुख में नहीं रहेगा । यह बात तय है । लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे । उसकी संभावना भी उसकी खो गई । माना कि तुम नरक में हो, लेकिन तुम स्वर्ग में हो सकते हो । और उसी सीढ़ी से जिससे तुम नरक में उतरे हो । 100 में 99 लोग नीचे की तरफ उतरते हैं । लेकिन यह कोई सीढ़ी का कसूर नहीं है । यह तुम्हारी ही भूल है ।
और स्वयं को न बदलकर सीढ़ी पर कसूर देना । स्वयं की आत्मक्रांति न करके सीढ़ी की निंदा करना बड़ी गहरी नासमझी है । अगर सीढ़ी तुम्हें नरक की तरफ उतार रही है । तो पक्का जान लेना कि यही सीढ़ी तुम्हें स्वर्ग की तरफ उठा सकेगी । तुम्हें दिशा बदलनी है । भागना नहीं है । क्या होगा दिशा का रूपांतरण ?
जब तुम किसी को प्रेम करते हो । वह कोई भी हो । मां हो । पिता हो । पत्नी हो । प्रेयसी हो । मित्र हो । बेटा हो । बेटी हो । कोई भी हो । प्रेम का गुण तो एक है । किससे प्रेम करते हो ? यह बड़ा सवाल नहीं है । जब भी तुम प्रेम करते हो । तो दो संभावनाएं हैं । एक तो यह कि जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो । या जिसे तुम प्रेम करते हो । उस पर तुम प्रेम के माध्यम से आधिपत्य करना चाहो । मालकियत करना चाहो । तुम नरक की तरफ उतरने शुरू हो गए ।
प्रेम जहां पजेशन बनता है । प्रेम जहां परिग्रह बनता है । प्रेम जहां आधिपत्य लाता है । प्रेम न रहा । यात्रा गलत हो गई । जिसे तुमने प्रेम किया है । उसके तुम मालिक बनना चाहो । बस भूल हो गई । क्योंकि मालिक तुम जिसके भी बन जाते हो । तुमने उसे गुलाम बना दिया । और जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो । तो याद रखना । उसने भी तुम्हें गुलाम बना दिया । क्योंकि गुलामी एकतरफा नहीं हो सकती । वह दोधारी धार है । जब भी तुम किसी को गुलाम बनाओगे । तुम भी उसके गुलाम बन जाओगे । यह हो सकता है कि तुम छाती पर ऊपर बैठे होओ । और वह नीचे पड़ा है ।
लेकिन न तो वह तुम्हें छोड़कर भाग सकता है । न तुम उसे छोड़कर भाग सकते हो । गुलामी पारस्परिक है । तुम भी उससे बंध गए हो । जिसे तुमने बांध लिया । बंधन कभी एकतरफा नहीं होता । अगर तुमने आधिपत्य करना चाहा । तो दिशा नीचे की तरफ शुरू हो गई । जिसे तुम प्रेम करो । उसे मुक्त करना । तुम्हारा प्रेम उसके लिए मुक्ति बने । जितना ही तुम उसे मुक्त करोगे । तुम पाओगे कि तुम मुक्त होते चले जा रहे हो । क्योंकि मुक्ति भी दोधारी तलवार है । तुम जब अपने निकट के लोगों को मुक्त करते हो । तब तुम अपने को भी मुक्त कर रहे हो । क्योंकि जिसे तुमने मुक्त किया । उसके द्वारा तुम्हें गुलाम बनाए जाने का उपाय नष्ट कर दिया तुमने । जो तुम देते हो । वही तुम्हें उत्तर में मिलता है । जब तुम गाली देते हो । तब गालियों की वर्षा हो जाती है । जब तुम फूल देते हो । तब फूल लौट आते हैं । संसार तो प्रतिध्वनि करता है । संसार तो एक दर्पण है । जिसमें तुम्हें अपना ही चेहरा हजार-हजार रूपों में दिखाई पड़ता है ।
जब तुम किसी को गुलाम बनाते हो । तब तुम भी गुलाम बन रहे हो । प्रेम कारागृह बनने लगा । यह मत सोचना कि दूसरा तुम्हें कारागृह में डालता है । दूसरा तुम्हें कैसे डाल सकता है ? दूसरे की सामर्थ्य क्या ? तुम ही दूसरे को कारागृह में डालते हो । तब तुम कारागृह में पड़ते हो । यह साझेदारी है । तुम उसे गुलाम बनाते हो । वह तुम्हें गुलाम बनाता है । पति पत्नियों को देखो । वे एक दूसरे के गुलाम हो गए हैं । और स्वभावतः जो तुम्हें गुलाम बनाता है । उसे तुम प्रेम कैसे कर पाओगे ? भीतर गहरे में रोष होगा । क्रोध होगा । गहरे में प्रतिशोध का भाव होगा । और वह हजार हजार ढंग से प्रकट होगा । छोटी छोटी बात में प्रकट होगा । क्षुद्र क्षुद्र बातों में पति पत्नियों को तुम लड़ते पाओगे । प्रेमियों को तुम ऐसी क्षुद्र बातों पर लड़ते पाओगे कि यह तुम मान ही नहीं सकते कि इनके जीवन में प्रेम उतरा होगा । प्रेम जैसी महा घटना जहां घटी हो । वहां ऐसी क्षुद्र बातों की कलह उठ सकती है ? यह क्षुद्र बातों की कलह बता रही है कि सीढ़ी नीचे की तरफ लग गई है ।
जब भी तुम किसी पर आधिपत्य करना चाहोगे । तुमने प्रेम की हत्या कर दी । प्रेम का शिशु पैदा भी न हो पाया । गर्भपात हो गया । अभी जन्मा भी न था कि तुमने गर्दन दबा दी ।
प्रेम खिलता है । मुक्ति के आकाश में । प्रेम का जन्म होता है । स्वतंत्रता के परिवेश में । कारागृह में प्रेम का जन्म नहीं होता । वहां तो प्रेम की कब्र बनती है । और जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे । तब तुम धीरे धीरे पाओगे । प्रेम तो न मालूम कहां तिरोहित हो गया । और प्रेम की जगह कुछ बड़ी विकृतियां छूट गईं ।  ईष्या । जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे । तब ईष्या पैदा हो जाएगी ।
प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है । क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है । जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है । अकारण । बेशर्त । तब मंदिर बन जाता है । और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है । वासना की भांति । शोषण और हिंसा की भांति । और ईष्या द्वेष की भांति । आधिपत्य, पजेशन की भांति । तब कारागृह बन जाता है ।
कारागृह का अर्थ है । जिससे तुम बाहर होना चाहो । और हो न सको । कारागृह का अर्थ है । जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए । जो तुम्हें विकास न दे । छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए । और तुम्हें डुबाए । कारागृह का अर्थ है । जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ । मुक्त होने के लिए । और मुक्त न हो सको । द्वार बंद हों । हाथ पैरों पर जंजीरें पड़ी हों । पंख काट दिए गए हों । कारागृह का अर्थ है । जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे ।
मंदिर का अर्थ है । जिसका द्वार खुला हो । जैसे तुम भीतर आए हो । वैसे ही बाहर जाना चाहो । तो कोई प्रतिबंध न हो । कोई पैरों को पकड़े न । भीतर आने के लिए जितनी आजादी थी । उतनी ही बाहर जाने की आजादी हो । मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे । लेकिन बाहर जाने की आजादी सदा मौजूद है । कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे । और द्वार बंद हो गया । और निकलने का मार्ग न रहा ।
मंदिर का अर्थ है । जो तुम्हें अपने से पार ले जाए । जहां से अतिक्रमण हो सके । जो सदा और ऊपर । और ऊपर ले जाने की सुविधा दे । चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो । और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो । लेकिन जैसे जैसे प्रेम गहरा होने लगे । वैसे वैसे शुद्धि बढ़ने लगे । चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो । लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो । प्रेम शरीर का आकर्षण न रहकर । दो मनों के बीच का खिंचाव हो जाए । और यात्रा के अंत अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए । दो आत्माओं का मिलन बन जाए ।
जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके । वह तो मंदिर है । और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके । वह कारागृह है । और प्रेम दोनों हो सकता है । क्योंकि तुम दोनों हो । तुम पशु भी हो । और परमात्मा भी । तुम एक सीढ़ी हो । जिसका एक छोर पशु के पास टिका है । और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है । और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो । या नीचे उतरते हो । सीढ़ी एक ही है । उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है । सिर्फ दिशा बदल जाएगी । जिन सीढ़ियों से चढ़कर तुम मेरे पास आए हो । उन्हीं सीढ़ियों से उतरकर तुम मुझसे दूर भी जाओगे । सीढ़ियां वही होंगी । तुम भी वही होओगे । पैर भी वही होंगे । पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है । वैसे ही जाने में भी उपयोग होगी । सब कुछ वही होगा । सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी । एक दिशा थी । जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं । आकाश की तरफ । और पैर तुम्हारी आंखों का अनुसरण कर रहे थे । दूसरी दिशा होगी । तुम्हारी आंखें जमीन पर लगी होंगी । नीचाइयों की तरफ । और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे ।
साधारणतः प्रेम तुम्हें पशु में उतार देता है । इसलिए तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं । घृणा से भी इतने नहीं डरते । जितने प्रेम से डरते हैं । शत्रु से भी इतना भय नहीं लगता । जितना मित्र से भय लगता है । क्योंकि शत्रु क्या बिगाड़ लेगा ? शत्रु और तुम में तो बड़ा फासला है । दूरी है । लेकिन मित्र बहुत कुछ बिगाड़ सकता है । और प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नष्ट कर सकता है । क्योंकि तुमने इतने पास आने का अवसर दिया है । प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नीचे उतार सकता है नरकों में । इसलिए प्रेम में लोगों को नरक की पहली झलक मिलती है । इसलिए तो लोग भाग खड़े होते हैं । प्रेम की दुनिया से । भगोड़े बन जाते हैं । सारी दुनिया में धर्मों ने सिखाया है । प्रेम से बचो । कारण क्या होगा ? कारण यही है कि देखा कि 100 में 99 तो प्रेम में सिर्फ डूबते हैं । और नष्ट होते हैं । ओशो ।

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