शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

आप आत्म विश्वास पा सकते हैं

क्या कोई ऐसा खोजी है । कोई ऐसा प्रश्न कर्ता है । जो अपने बारे में अन्य लोगों द्वारा दी गई सारी सूचनाओं । सारे ज्ञान को पूर्णतः त्याग कर । अपने आपको जानने की कोशिश करे ? क्या कोई ऐसा करेगा ? कोई भी नहीं । क्योंकि यह बहुत ही सुरक्षित और आसान है कि हम प्रभुत्व स्वीकार लें । तब कोई भी अपने आपको सुरक्षित संरक्षित महसूस करता है । लेकिन यदि कोई पूर्णतः अन्य लोगों । किसी के भी प्रभुत्व प्रभाव को त्याग दे । तो कोई कैसे अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है ? क्योंकि स्वत्व कोई स्थायी चीज तो है नहीं । यह निरंतर गतिशील है । जिन्दा है । कार्य कर रहा है । कोई उस चीज के बारे में कैसे देखे जाने । अवलोकन करे । जो निरंतर आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत गतिशील है । पूरे आग्रह के साथ । आकांक्षाओं । लोभ । रोमांस के साथ ? जिसका तात्पर्य है । क्या कोई अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है । अपनी सभी इच्छाओं और भयों सहित । बिना अन्य लोगों से ज्ञान लिये । या बिना उस ज्ञान के । जो उसने अपने आपको जानने के लिए स्वयं ही इकट्ठा कर रखा है ।
स्‍वाधीनता दी नहीं जा सकती । स्‍वाधीनता कुछ ऐसा है । जो तब आती है । जब आप उसे नहीं खोजते । यह तब अपने आप आती है । जब आप जान जाते हैं कि - आप कैदी हैं । जब आप अपने ही बारे में जानते हैं कि आप यंत्र बद्ध से हैं । जब आप जानते हैं कि आप समाज । संस्कृति । परंपराओं । और वो सब । जो आप कहते हैं । उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं । स्‍वाधीनता एक सामान्यपन है । यह असामान्य चीज नहीं है । और यह प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्णत । बाहरी और आंतरिक रूप से होनी ही चाहिये । बिना स्‍वाधीनता के आपकी दृष्टि में स्पष्टता नहीं होती ।

बिना स्‍वाधीनता के आप प्रेम नहीं कर सकते । बिना स्‍वाधीनता के आप सत्य की खोज नहीं कर सकते । बिना स्‍वाधीनता के आप मन की सीमाओं से पार नहीं पा सकते । आपको अपने पूरे अस्तित्व से इसकी अभीप्सा जगानी होगी । जब आप अपने से ही इसकी अत्यंतिक मांग उठायेंगे । तब आप अपने में ही इसे पा सकेंगे । और यह जान सकेंगे कि - स्‍वाधीनता । सामान्य पन सहज पन क्या है ? और नियत चिह्नों पर चलने । लकीरें पीटने से स्‍वाधीनता नहीं मिलती । ना ही यह आदतों का प्रतिफल होती है ।
जीवन में प्रति पल हो रहे परिवर्तनों के । निरन्तर स्पर्श में रहने को देखना । ध्यान है । एक व्यक्ति जो एक पापी से संत होने की विकास यात्रा में है । वह एक संभृम से अन्य भृम में यात्रा कर रहा है । यह सारी गति भृम में ही है ।  जब मन यह भृम ही देख लेता है । तब वह पुनः भृम नहीं पैदा करता । ना ही किसी तरह की नाप जोख या मापने को जारी रखता है । अंततः इसलिए बेहतर होते होते । विचार का अंत आ जाता है । इन सबके साथ ही मुक्ति की अवस्था उदित होती है । और यही पवित्र पावन है । केवल यहीं वह उपलब्ध होता है । जो निरंतर है ।
सब तरह से मुक्त होना है । ज्ञात से मुक्ति । मन की वह अवस्था । जो कहती है - मैं नहीं जानता ? और जो उत्तर की राह भी नहीं तकती । ऐसा मन जो पूर्णतः किसी तलाश में नहीं होता । ना ही ऐसी आशा करता है । ऐसे मन की 


अवस्था में आप कह सकते हैं कि - मैं समझा । केवल यही वह अवस्था होती है । जब मन मुक्त होता है । इस अवस्था से आप उन चीजों को भी एक अलग ही तरह से देख सकते । जिन्हें आप जानते हैं । ज्ञात से आप अज्ञात को नहीं देख सकते । लेकिन जब कभी एक बार आप मन की उस अवस्था को समझ जाते हैं । जो मुक्त है । जो मन कहता है कि - मैं नहीं जानता । और अजाना ही रहता है । इसलिए वह अबोध है । उस अवस्था से एक नागरिक । एक विवाहित । या आप जो भी हों वास्तविक कर्म करना शुरू करते हैं । तब आप जो भी करते हैं । उसमें एक सुसंगतता होती है । जीवन में महत्व होता है ।
लेकिन हम ज्ञात की सीमा में ही रहते हैं । उसकी सभी विषमताओं के साथ । जी तोड़ प्रयासों । विवादों और पीड़ाओं के साथ और वहां से हम तलाश करते हैं । उसकी । जो अज्ञात है । इसलिए वास्तव में हम मुक्ति नहीं चाह रहे हैं । हम जो चाहते हैं । वह है । जो है । उसमें ही निरंतरता । वही पुरानी चीजों को और खींचना या लम्बाना । जो ज्ञात ही हैं ।
श्रीमन ! प्रतिभा और गूढ़ता हमेशा ही आवरण में सहेजने चाहिये । क्योंकि इनको ज्यादा उघाड़ना केवल अन्धेपन का कारण ही बनता है । इसलिए मेरा यह मन्तव्य कभी भी नहीं रहता कि - मैं लोगों को अन्धा करूं । या अपनी प्रवीणता का प्रदर्शन करूँ । यह निहायत ही मूर्खता पूर्ण है । लेकिन जब कोई चीजों को बहुत ही साफ साफ देखता है । तो वह उन्हें अपने से परे रखने में सहायता नहीं पाता । इन्हें ही आप प्रतिभा और गूढ़ता के रूप में सोचते हैं ।  मेरे लिये । मैं जो भी कह रह हूँ । वह प्रतिभा पूर्ण नहीं है । ऐसा सहज निश्चित है । यह एक तथ्य है । एक और बात । आप चाहते हैं कि - मैं एक आश्रम या समुदाय की स्थापित करूँ । अब बतायें । क्यों ? आप मुझसे ये क्यों चाहते हैं कि - एक समुदाय की स्थापना करूं ? आप कह रहे हैं कि वह एक सन्दर्भ या पहचान के रूप में कार्य करेगा । या वो कुछ एक सफल प्रयोग के रूप में रखा । या दिखाया जा सकेगा ।  यही तो है । सन्दर्भ या पहचान का तात्पर्य । क्या ऐसा ही नहीं है ? एक समुदाय । जहाँ इसी तरह की सारी चीजें चलायी जायेंगी । यही है । जो आप चाहते हैं । मैं नहीं चाहता कि किसी आश्रम या समुदाय की स्थापना हो । आप चाहते हैं । अब आप क्यों इस तरह के समुदाय की मांग कर रहे हैं ? मैं आपको बताता हूँ कि - क्यों ? यह बहुत ही रूचि कर है । नहीं ? आप ऐसा इसलिए चाहते हैं कि आप अन्य लोगों के साथ 


उससे जुड़ना चाहते हैं । और एक समुदाय गढ़ना चाहते हैं । लेकिन आप अपने ही साथ एक समुदाय आरंभ करना नहीं चाहते । आप चाहते हैं कि कोई अन्य ऐसा करे । और जब कोई समुदाय की स्थापना कर दे । तब आप उसे ज्वाइन कर लें । दूसरे शब्दों में श्रीमन आप अपना ही समुदाय आरंभ करने से घबराते हैं । इसलिए एक सन्दर्भ रूप में । कोई आश्रम या समुदाय चाहते हैं । यही है । आप चाहते हैं कि कोई आपको किसी तरह की जिम्मेदारी या दायित्व दे । संस्थापित करे । और आप उसे प्रभुता पूर्वक सहेजे । सम्हालें । चलायें । अन्य शब्दों में आप अपने आप में आत्म विश्वस्त नहीं हैं । इसलिए आप चाहते हैं कि किसी समुदाय की स्थापना हो । और आप उसे ज्वाइन कर लें ।
श्रीमन ! आप जहाँ भी हैं । आप वहीं एक समुदाय पा सकते हैं । लेकिन वह समुदाय आप तभी पा सकते हैं । जब आपमें आत्म विश्वास हो । समस्या यह है कि - आपमें आत्म विश्वास ही नहीं है । आपमें आत्म विश्वास क्यों नहीं है ? मेरा आत्म विश्वास का अभिप्राय क्या है ? एक व्यक्ति । जो कोई परिणाम को उपलब्ध करना चाहता है । वह वो सब प्राप्त करता है । जो वह पाना चाहता है । एक व्यापारी । एक वकील । एक पुलिसिया । जनरल । ये लोग । आत्म विश्वास से भरे हैं । आत्म विश्वास से पूर्ण होते हैं । लेकिन यहीं आप में आत्म विश्वास नहीं है । क्यों ? एक साधारण सा कारण है कि - आपने प्रयोग नहीं किया है । आपने जो भी समझा है । उसे व्यवहार में नहीं लायें हैं । जब आप इसे प्रयोग में लायेंगे । तब आपके पास आत्म विश्वास होगा । दुनिया में कोई भी व्यक्ति आपको आत्म विश्वास नहीं दे सकता ? न कोई किताब । ना कोई शिक्षक । आपको आत्म विश्वास से नहीं भर सकते । प्रोत्साहन आत्म विश्वास नहीं होता । प्रोत्साहन अत्यंत सतही । बचकाना । अपरिपक्व चीज है । आत्म विश्वास आता है । जब आप प्रयोग में उतरते हैं । जब आप राष्ट्रीयता से प्रयोग में उतरते हैं । तो देखिये । बुद्धि तो बहुत ही छोटी सी चीज है । तो जब भी आप प्रयोग में हो । व्यावहारिक हों । आपमें आत्म विश्वास होता है । क्योंकि आपका मन तेज द्रुतगामी और लचीला होता है । तब आप जहाँ भी होंगे । वहीं आश्रम होगा । आप अपने आप ही एक समुदाय की स्थापना कर सकेंगे । यह स्पष्ट है । क्या नहीं ?
आप किसी भी समुदाय से अधिक महत्वपूर्ण हैं । यदि आप किसी समुदाय की सदस्यता ग्रहण करें । तो आप वही रहेंगे । जो कि आप हैं । कोई आपका वरिष्ठ होगा । आपके लिए नियम कायदे कानून होंगे । अनुशासन होंगे । आप उस बेकार के समुदाय में वही कोई श्री राम या श्री राव होंगे । आप किसी समुदाय की आकांक्षा तभी करते हैं । जब आप चाहते हैं कि - आपको कोई निर्देशित करे । आपको बताये कि आपको क्या करना है । एक आदमी जो अपने आपको निर्देशित हुए देखना चाहता है । वह अपनी आत्म विश्वास हीनता को जानता है । आप आत्म विश्वास पा सकते हैं । पर आत्म विश्वास संबंधी बातें करके ही नहीं । अपितु जब आप प्रयोग में उतरेंगे । तब आप कब कोशिश करेंगे । श्रीमन । केवल आप ही हैं । जो सन्दर्भ हो सकते हैं । ना कि कोई समुदाय । या आश्रम । और जब कोई समुदाय या आश्रम आपकी पहचान बने । आप अपने आप को खो देते हैं । मुझे आशा करता हूँ कि - बहुत से लोग आपस में जुड़े । और प्रयोग करें । आत्म विश्वास से भरें । इसलिए इस कार्य में इकट्ठा आयें । लेकिन वे लोग जो बाहर ही रहना चाहते हैं । और कहते हैं - मैं सदस्यता ग्रहण करना चाहता हूँ । इसलिए आप कोई समुदाय क्यों नहीं स्थापित करते । यह निहायत ही मूर्खता पूर्ण प्रश्न करने वाले हैं । जे. कृष्णमूर्ति

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